विभिन्न बीजीय मसाला फसलों में जीरा अल्पसमय में पकने वाली प्रमुख नकदी फसल हैं। जीरे के दानों में पाये जाने वाले वाष्पषील तेल के कारण ही इनमें जायकेदार सुगध होती है। इसी सुगन्ध के कारण जीरे का मसालों के रूप में उपयोग किया जाता है। जीरे में यह विषिष्ट सुगंध क्यूमिनॉल या क्यूमिन एल्डीहाइड के कारण होती है। इसका उपयोग मसाले के अलावा औषधि के रूप में भी होता हैं, जीरे में मुत्रवर्धक, वायुनाषक, व अग्निदीपक गुण पाये जाते हैं। इन गुणों के कारण कई देषों में आयुर्वेदिक दवाओं में जीरे का उपयोग बढ़ता जा रहा है।
भारत में जीरे की ख्ैंती अधिक नमी वाले क्षेत्रों को छोड़कर देष के सभी राज्यों में की जाती है। जीरे के कुल क्षेत्र व उत्पादन का लगभग 90 प्रतिषत भाग राजस्थान व गुजरात के अन्तर्गत आता है। देष के कुल उत्पादन का 48 प्रतिषत जीरा राजस्थान में होता है। राजस्थान के जालौर, बाड़मेर, पाली, अजमेर, जौधपुर, नागौर, टोंक व जयपुर जीरा उत्पादन करने वाले मुख्य जिले है।
जीरे की फसल एक प्रमुख नकदी फसल है। संतुलित खाद के साथ-साथ फसल को बीमारियों को कीटों से बचाव करना बहुत जरूरी है। जीरे का पौधा काफी नाजुक होता है। थोड़ी सी भी लापरवाही जीरे की फसल को बर्बाद कर सकती है। जीरे की फसल में विभिन्न प्रकार के कीट तथा बीमारियां आने का डर हमेशा रहता है जिनका सही समय पर सही पहचान कर निदान नहीं किया जाए तो फसल पूर्णता चौपट हो सकती है। किसान भाई उचित समय पर उचित प्रबंधन कर फसल को नुकसान से बचाएं।
जीरे की खेती एवं रोग:-
1. छाछया या चूर्णिल आसिता :-
यह रोग एरीसीफी पोलीगोनी नामक कवक से होता हैं। इस रोग की प्रारम्भिक अवस्था में पौधों की पत्तियों व टहनियों पर सफेद चूर्ण नजर आता हैं। धीरे- धीरे सफेद चूर्ण पूरे पौधें पर ही फैल जाता हें, जिससे पोधे की वृद्वि रूक जाती है। रोगी फसल में बीज बनते ही नही बनते है तो कम व हल्के बीज बनते हैं। प्रारम्भिक अवस्था में रोग आने पर पूरी फसल नष्ट हो जाती है। तथा देरी से आने पर बीजों की विपणन गुणवत्ता पूर्णतया कम हो जाती है।
रोकथाम :-
रोग के लक्षण दिखने पर 15-20 किलोग्राम गंधक चूर्ण प्रतिहैक्टर की दर से भुरकाव करें।
डायनोकेप 1 प्रतिषत का पर्णिय छिड़काव रोग के लक्षण दिखाई देने पर करना चाहिए तथा 10-15 दिन के अन्तराल से छिड़काव या भूरकाव दोहराया जा सकता हैं
2. उकठा रोग (विल्ट) :-
जीरे मेें उकठा रोग फ्यूजेरियम ओक्सीस्पोरम स्पीं. क्यूमिनी नामक कवक से होता हैं। रोग से ग्रसित पौधे हरे अवस्था में ही मुरझा कर सूख जाते है। इस रोग का आक्रमण पौधों की किसी भी अवस्था में हो सकता हैं परन्तु फसल की प्रारम्भिक अवस्था में अधीक होता हैं यह रोग पौधों की जड़ों में लगता हैं, इसकी पूर्णतया रोकथाम कठिन हैं
रोकथाम :-
रोग के संक्रमण को कम करने के लिए द्विर्धकालीन वर्ष का फसल चक्र अपनावें
स्वस्थ व रोग रहित बीजों को बॉविस्टीन या एग्रोसेन जी एन दवा से 2 ग्राम प्रति किग्रा बीज की दर से उपचारित कर बुवाई करें।
खेत की गर्मीयों में मई-जून के महिनों में गहरी जुताई का खुला छोड़ देवें।
मृदा में जैव नियन्त्रण ट्राइकोडर्मा वीरिडी, ट्राइकोडर्मा हरजीयनम का प्रयोग का रोग जनक की वृद्वि को रोका जा सकता हैं
इस रोग से कम प्रभावीत होने वाली किस्मों की बुवाई करनी चाहिये। जैसे – आर.एस.-1, आर. जेड़-209, एम.सी.-43, गुजरात जीरा-1 आदि।
3 झुलसा रोग (अल्टरनेरिया ब्लाइट)
यह रोग अल्टरनेरिया बोन्रिसी नामक कवक द्वारा होता है। झुलसा रोग के प्रकोप से प्रभावित पौधों पर भूरे- काले धब्बे दिखाई देते हैं जो बाद में गहरे काले हो जाते है। फसल में फूल आने वाली अवस्था में अगर आकाष में बादल छाये रहे तो इस रोग का प्रकोप बढ जाता है। इस रोग से ग्रसीत पौधों की उपज व गुणवत्ता में कमी आ जाती है।
नियन्त्रण :-
मेन्कोजेब 2 प्रतिषत का छिड़काव तुरन्त करना चाहिए आवष्यकतानुसार छिड़काव 15 दिन से दोहरावें।
मेन्कोजेब 2 प्रतिषत + अजाडिरेक्टीन 0.3 प्रतिषत का छिड़काव बुवाई के 40-45 दिनों के बाद करने से रोग को रोका जा सकता है।
प्रोपीकोनाजोल, आईप्रोडिओन + कार्बेडाजिम कवक नाषियों का पर्णिय छिड़काव झुलसा रोग की रोकथाम में उपयोगी पाया गया है।