कीड़े-मकोड़े फसल की पैदावार को अत्यधिक क्षति पहुँचाते हैं जिससे किसानों का परिश्रम बर्बाद हो जाता है। इन समस्यों के निवारण हेतु किसान रासायनिक कीटनाशकों का प्रयोग करते हैं । इस बात में कोई संदेह नहीं है कि रासायनिक कीटनाशक कीट प्रबन्धन के सफल हथियार है परन्तु इनके अनेकों दुष्परिणाम भी हैं। जीवनाशी के उपयोग से किसानों के मित्र जीव भी नष्ट हो गए। अधिक जीवनाशी उपयोग करने से जीवनाशी अवशेष फसलों में अधिक दिनों तक बना रहता है जो उपभोक्ता के स्वास्थ्य के लिये हानिकारक होता है ।
चना फली भेदक, सेमीलूपर, काला माहूँ जैसे कीटों से बचाव करने के लिए रासायनिक कीटनाशक इण्डोसल्फान का प्रयोग काफी प्रचलित हुआ परन्तु इसी कीटनाशक के विनाशकारी प्रभाव ने केरल के एक गॉंव में तबाही का मंजर पैदा कर दिया था । वहाँ की वर्षा खुशहाली का प्रतीक होने के बजाय विष का स्रोत बन गयी। अब इण्डोसल्फान के प्रयोग पर सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया है ।
एक अच्छा कीटनाशक वही है जो पर्यावरण के लिए सुरक्षित हो, उचित मूल्य का हो और घातक कीटों का ही नाश करे परन्तु रासायनिक कीटनाशक इन मापदंडों पर खरे नहीं उतरते हैं। यही कारण है अब वैज्ञानिकों और किसानों का ध्यान समेकित कीट प्रबन्धन कि तरफ है जो कि पर्यावरण हितैषी है
समेकित कीट प्रबन्धन क्या है ?
समेकित कीट प्रबन्धन तीन शब्दों से मिलकर बना है – (क ) समेकित (ब) कीट (स) प्रबन्धन
समेकित का अर्थ :- एक या एक से अधिक नाशीजीव के प्रबन्धन के लिये अनेक विधियों को एक क्रमबद्ध करके प्रयोग करना समेकित कहलाता है ।
कीट अथवा नाशीजीव का अर्थ :- जो जीव प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मनुष्य अथवा फसल को हानि पहुँचाते हैं उन्हें नाशीजीव कहते हैं।
प्रबन्धन :- प्रबन्धन की वह विधि जिसमें नाशीजीव पूरी तरह से नष्ट न करके आर्थिक क्षति स्तर के नीचे रखे और साथ ही साथ वातावरण और समाज के लिए व आर्थिक रूप से अनुकूल हो ।
अत: समेकित कीट प्रबन्धन वह विधि है जिसमे व्यव्हारिक, यांत्रिक, भौतिक, जैविक और रासायनिक नियंत्रण तकनीक को एक क्रमबद्ध तरीके से प्रयोग किया जाता है, जिससे नाशीजीव कि संख्या आर्थिक क्षति के स्तर से नीचे रहे ।
समेकित कीट प्रबन्धन के उद्देश्य
- प्रबन्धन में कम लगत लगाकर अधिक से अधिक आय प्राप्त करना ।
- विधि वातावरण के अनुकूल हो जो किसान मित्र जीवों के विकास में बाधक ना हो ।
समेकित कीट प्रबन्धन के प्रमुख अवयव
समेकित कीट प्रबन्धन के प्रमुख अवयव निम्न प्रकार से हैं :-
वैधानिक नियंत्रण:-
वैधानिक नियंत्रण के निम्न भागों में बाँटा जा सकता है –
- देश अथवा प्रदेश के अन्दर पहले से ही मिलने वाले नाशिजीवों के प्रसार को रोकना
- तीव्र विष वाले रसायनों के प्रयोग पर रोक
- विदेशों से आने वाले नए नाशीजीव के विरुद्ध नियम
यांत्रिक नियंत्रण:-
नाशीजीव को किसी यंत्र की सहायता से अथवा भौतिक विधि से मरने कि क्रिया को यांत्रिक नियंत्रण कहते हैं इसके अंतर्गत खाई खोदना, रस्सी खींचना और प्रकाश प्रपंच लगाना आदि आते हैं।
भौतिक नियंत्रण:-
इसके अंतर्गत नाशिजीवों को भौतिक साधनों जैसे तापक्रम, नमी, प्रकाश, ध्वनि और बिजली का प्रयोग करके नष्ट करते हैं ।
जैविक नियंत्रण:-
हानि पहुँचने वाले नशीजीवों, कीटों तथा पौधों को नियंत्रित करने अथवा मारने के लिए उनके प्राकृतिक शत्रुओं का प्रयोग करना ही जैविक नियंत्रण कहलाता है (सारणी १)। फसल सुरक्षा में जैविक कीट नियंत्रण से तात्पर्य उन परभक्षी एवं परजीवी जन्तुओं से है जो वातावण को संरक्षण प्रदान कर सकें एंव उसे प्रदूषण से मुक्त रख सकें। जैविक कीट नियंत्रण यद्यपि धीमी प्रक्रिया है फिर भी भविष्य के लिये वातावरण को सुरक्षित रखने हेतु यह अत्यंत आवश्यक है। परजीवी, परभक्षी कीड़े एवं व्याधिजन तो मानवता को प्रकृति की स्वंय भेंट हैं जो चुपचाप अपना कार्य करते रहते है। जैविक कीट नियंत्रण ना केवल निरापद एवं प्रभावी होता है बल्कि एकीकृत कीट प्रबंधन में एक महत्वपूर्ण कड़ी का भी काम करता है जोकि स्थाई कृषि हेतु वर्तमान परिद्रश्य की अपरिहार्य आवश्यकता है। अतः कीट नियंत्रण में जैव.-आधारित नियंत्रण कारकों का उपयोग प्रमुखता से होना सर्वांगीण कृषि विकास कि मूलभूत आवश्यकता है। अतः किसान भाइयों को चाहिए कि वे इन मित्र कीटों को पहचानें और इन्हें नष्ट होने से बचाएं। प्रकृति में विभिन्न प्रकार के पर्यावरण हितैषी कीट पाए जाते हैं। प्राकृतिक जावनाषियों (प्राकृतिक शत्रुओं) में निम्नलिखित विषेष गुण होने चाहिए –
- पोषक जीवों को खोजने में सक्षम हों।
- किसी जीव विशेष पर ही पोषण के लिये आश्रित हो ।
- तीव्र प्रजनन शक्ति हो।
- जीवन चक्र अल्प हो ताकि थोड़े समय में ज्यादा पैदा किया जा सके।
- वातावरण सहने में सक्षम हो।
- पोषक जीवों की भाँति वितरण क्षमता हो।
- जीव विषों के विरूद्ध सहने की षक्ति हो।
- उच्च पराश्रयी न हो।
रासायनिक नियंत्रण:-
इसके अन्तर्ग रासायनिक पदार्थों का प्रयोग करते हैं जो अपनी रासायिनक क्रिया के द्वारा नाशीजीवों को मारतें हैं । इन रसायनों को जीवनाशी कहते हैं जीवनाशियों में सबसे पहले वानस्पतिक रसायन उसके बाद जैव रसायन और अंत में संश्लेषित रसायन का प्रयोग करते हैं।
व्यवहारिक नियंत्रण:-
व्यवहारिक नाशीजीवी नियंत्रण से तात्पर्य ऐसे नियंत्रण से है जिसमे परम्परागत अपनायी जाने वाली कृषि क्रियाओं में थोडा सा परिवर्तन करके नाशीजीवों के आक्रमण को कम कर दिया जाता है। ये उपाय या तो कीटों की प्रजनन शक्ति अथवा वृधि को रोकते हैं या पौधों के अन्दर कीट अवरोधी गुण उत्पन्न करके उनको इनसे दूर रखते हैं।
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