खेती उजाड़ता कृषि प्रधान भारत
मानव विकास के सिद्धांत के पुरोधा चार्ल्स डारविन का प्रसिद्ध कथन है कि मानव सभ्यता की गहराई १८ इंचहै । उनका आशय संभवत: भूमि की उस परत से है जहां से हमें रोटी व कपड़े के साधन मिलते हैं । खेती इस पृथ्वी पर प्रारंभ हुई संभावत: पहली नियोजित मानव किया है जो कई मार्ग बदलकर आज पुन: अपना अस्तित्व खोज रही है । वर्तमान खाद्यान्न असुरक्षा इसी भटकी हुई या भटकाई हुई खेती के ही कारण है औद्योगिक देशों में फसल को नष्टकर उद्योग खड़े किए थे लेकिन कृषि प्रधान भारत में जहां आज भी तीन चौथाई आबादी खेती पर निर्भर है, वहां इस तरह का भटकाव एक गंभीर मसला है । खेती की इस बदहाली के लिए हमारी राजतंत्र और प्रशासनतंत्र जिम्मेदारी है जिसने आजादी के बाद पारम्परिक खेती और ग्रामीण समाज की अनदेखी कर औद्योगिक खेती को विकसित करने में सहायता प्रदान की । खाद्यान्न सुरक्षा भारत की बुनियाद थी । यह न केवल मनुष्य के लिए थी बल्कि मवेशियों के लिए भी हर गांव में तालाब और चरणोई हुआ करते थे । सीमित सिंचाई व्यवस्था के कारण भारत में शुष्क खेती का प्रचलन था । ज्वार, बाजरा, मक्का, कोदो, कुटकी, तिवड़ा, मोटा कपास व अलसी जैसी फसलों का बोलबाला था । बहुफसलीय खेती होने के कारण मिट्टी की सतह और उर्वरता श्रेष्ठ दर्जे की थी । खेतों में कीड़े और रोगों का आक्रमण कम होता था । कम अथवा अधिक वर्षा होने पर भी खाद्यान्न सुरक्षित रहता था क्योंकि उथली जड़ो वाली और गहरी जड़ों वाली फसलें एक साथ बोई जाती थी । फसलों का उत्पादन और उत्पादकता भी कम नहीं थी । जल, भूमि और ऊर्जा का दोहन होता था, शोषण नहीं । अलबर्ट हॉवर्ड और जॉन अगस्टिन वोलकेयर जैसे अंग्रेज वैज्ञानिक भी भारतीय किसानों का लोहा मानते थे । मोटे देशी कपास के कारण गांव-गांव में चरखे चलते थे । देशी हल व बक्खरों के कारण लुहार व सुतार गांव-गांव में उपलब्ध थे । ज्वार, बाजरा, मक्का जैसी फसलों के कारण मवेशियों को चारा मिल जाता था । विदेशी कृषि तंत्रों से प्रभावित हमारे योजनाकारों ने हरित क्रंाति के चक्कर में भारतीय फसलचक्र तोड़ा । बहुफसलीय खेती की जगह चावल,गेहूँ और सोयाबीन जैसी नगदी और एक फसल पद्धति का अपनाया जिससे खेतों का संतुलन बिगड़ा । खेतों में जीवांश कम हुए । उत्पादकता घटी और रोगग्रस्तता में वृद्धि हुई । लिहाजा देश में रासायनिक खादों और कीटनाशकों के कारखानों का जाल बिछा । फिर ट्रेक्टर, कार्बाइन व हार्वेस्टर आए । नगदी फसलों के कारण धन (मुद्रा) तो बढ़ा लेकिन दौलत (चारा, मवेशी, लकड़ी, पानी और कारीगरी) कम होती गई । यह सब खेतों में उत्पादन बढ़ाने के लिए हुआ लेकिन योजनाकार भूल गए कि बाहरी संसाधनों के निर्माण में लगने वाली ऊर्जा की खपत बढ़ने से गांवों में ऊर्जा कम हुई । सूखती फसल को बचाने के लिए कुआें पर लगाए गए पंप और मोटर के लिए ऊर्जा गायब हो गई । महंगे संसाधनों के कारण फसलों का गणित बिगड़ा व लागत खर्च भी बढ़ा । फसलों के वाजिब दाम नहीं मिले । ऐसे में आत्महत्या के सिवाय किसानों के पास चारा ही क्या था ? आजादी के बाद खेतों में मिल धन से शहर समृद्ध होने लगे । बड़े-बड़े कल कारखाने, चमचमाती सड़कें, विश्वविद्यालय, फ्लायओवर, मॉल्स, बांध बने परंतु गांव अंधेरे में डूब गए । किसी ने यह समझने की कोशिश ही नहीं की कि फसल को जो भोजन लगता है वह ९५ प्रतिशत तो प्रकृति से ही प्राप्त् होता है, जिसके लिए न तो बिजली लगती है और न कोई बाहरी संसाधन । उसे तो खेतों में पर्याप्त् जीवांश और नमी चाहिए जो फसल अवशेषों से, गोबर और गोमूत्र से ही प्राप्त् हो जाती है । जंगलों को ही ले, वहां कौन सिचांई करने या खाद या कीटनाशक छिड़कने जाता है, फिर उनकी समृद्धि कहां से आती है ? इस मूलभूत तथ्य को भी नजरअंदाज किया जा रहा है क्योंकि हमारे कृषि विश्वविद्यालय और अनुसंधानकर्ता विदेशी कृषि तंत्र को अपनाए हुए हैं जहां रासायनिक खाद, कीटनाशक और अन्य बाह्य संसाधन आज भी प्रमुख माने जाते हैं । भारत की जैव-विविधता, विशाल वनस्पति संपदा और हमारे प्राकृतिक संसाधनों पर आज भी कृषि विश्वविद्यालय मौन हैं । वहां आज भी गिनी चुनी फसलों की जातियों को विकसित करने पर ही जोर दिया जा रहा है और अब तो जीन रूपांतरित फसलों का बोलबाला है । हमारे अनुसंधानकर्ता भी उसी के पीछे पड़े हैं । प्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक बोरलाग, जिन्होने भारत में मैक्सिकन जाति के गेहूूं के बीज बोकर हरित क्रांति का शंखनाद किया था, विगत कई वर्षोंा से अब मक्का पर अनुसंधान कर रहे हैं जबकि हम आज भी गेहूँ की नई-नई जातियां किवसित किए जा रहे है । गेहूँ छोड़कर बोरलाग मक्का पर क्यों आए ? क्या इसलिए कि बदलते मौसम के कारण गेहूँ का उत्पादन और उत्पादकता घटने लगी है ? या इसलिए कि गेहूँ में निहित ग्लूटिंन मानव व्यवस्थ्य के लिए हानिकारक सिद्ध हो रहा है या इसलिए कि अमेरिका में अब मोटे अनाज का प्रचलन बढ़ रहा है । ( जैव इंर्धन के कारण ?) भारत में आजकल एमवे व्यापार जोर-शोरों पर है ।हमारे प्रबुद्ध समाज घर-घर ओमेगा, ३,६,९, और १२ की गोलियां बेच रहा है ? किसी ने जानने की कोशिश की कि क्या ओमेगा में ? वसीय अम्लों पर आधारित ये गोलियां बनी हैं मछले के तेल, और अलसी से । अलसी जो कभी भारत में खेतों की जानदार फसल हुआ करती थी । अमेरिका में आजकल अलसी का तेल सबसे महंगा बिक रहा है और देश के अधिकांश हिस्सों में बोने के लिए अलसी का बीज ही उपलब्ध नहीं है । यह है हमारा कृषि प्रधान देश और ये है हमारे कृषि विज्ञानिकों की सोच ! सुना है केंद्र सरकार ने कृषि शिक्षा में सुधार के लिए २२७६ करोड़ रूपए मंजूर किए है । इससे हमारे विश्वविद्यलयों के अध्ययनकक्ष, प्रयोगशाला, पुस्तकालय, छात्र-छात्राआें के आवास तथ प्रक्षेत्र सुसज्जित किए जाएंगे । क्या हमारे अनुसंधानकर्ताआें की मानसिकता इस आधुनिकता को पचाने में सक्षम हैं ? कृषि शिक्षा और अनुसंधान में आधुनिकता के मापदंड क्या मानसेंटो, सिंजेटा या वालमार्ट तय करेंगे । इस देश का दुर्भाग्य है कि हमारा मीडिया सरकार से इस संबंध में कई प्रश्न नहीं पूछता है । हमारे देश में पी. साईनाथ, भरत झुनझुनवाला, वंदना शिवा, सुमन सहाय, देवेन्दर शर्मा, भारत डोगरा, सुनील जैसे पत्रकार कभी-कभार अखबारों में उपस्थित मिलते हैं और वह भी दुर्भाग्य है कि हमारा समाज प्रदूषित वातावरण और प्रदूषित अन्न खाकर भी मौन है । खेती किसानी से और किसानों की गिरती हालत से उसे कुछ लेना-देना नहीं है । अमेरिका के अश्वेत वैज्ञानिक डॉ. जार्ज वाशिंगठन कार्वर (सन् १८६३-१९४३) और कोल्हापुर महाराष्ट्र के श्रीपाद अच्युत दाभोलकर (सन् १९२५-२००१) ने पारम्परिक खेती के क्षेत्र में सराहनीय कार्य किया है । उनके प्रयोगों ने सारे संसार में किसानों को लाभान्वित किया है। भारत में भी उनके गिने चुने शिष्य स्वावलंबी खेती कर रहे हैं । अलबर्ट हॉवर्ड, बिल मालिसन और मासानेबू फुकुओका ने प्राकृतिक खेती पर प्रशंसनीय कार्य किया है । इन सभी का योगदान हमारे कृषि विश्वविद्यालयों के लिए कोई मायने नहीं रखता और पाठ्यक्रमों में इनके नाम तक नहीं हैं । यदि हमारे अनुसंधानकर्ताआें ने ही उनकी सुध नहीं ली है उनके बताए नुस्खों पर प्रयोग नहीं किए तो इन वैज्ञानिकों का कार्य किसानों तक कैसे पहुचेगा और कहां से आएगी हमारे खेती में समृद्धि कौन बताएगी हमारे खेती में समृद्धि कौन बताएगा गावों को स्वालंबी व कैसे दूर होगी खेती की उपेक्षा ?
बढ़ते कचरे का संकट मनुष्य के लिए पेट भरने , तन ढंकने और सिर छिपाने लायक आच्छादन बनाने की समस्या अभी हल नहीं हो पाई थी कि बड़ी मात्रा में उत्पन्न होने वाले कचरे को ठिकाने लगाने की नई समस्या सामने आ गई । प्रकृति अपने उत्पादित कचरे को ठिकाने लगाती और उपयोगी बनाती रहती है । पशुआें के मल-मूत्र, पेड़ों से गिरे पत्ते आदि सड़ गल कर उपयोगी खाद बन जाते हैं और वनस्पति उत्पादन में काम आते हैं । मनुष्य का मल – मूत्र भी उतना ही उपयोगी है पर इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि उससे खाद न बनाकर नदी – नालों में बहा दिया जाता है और पेय जल को दूषित कर दिया जाता है । इससे दुहरी हानि है, खाद से वंचित रहना और कचरे को नदियों में फेंककर बीमारियों को आमन्त्रित करना । सरकारी तथा गैर सरकारी स्तरों पर किए जा रहे अनेक प्रयासों के बावजूद इन दिनों कचरे में भयानक वृद्धि हो रही है । हर वस्तु कागज, प्लास्टिक की थैली, पत्तल, दोना, डिब्बा आदि में बंद करके बेची जाती है । वस्तु का उपयोग होते ही वह पेकिंग कचरा बन जाती है और उसे जहां – तहां सड़कों, गलियों में फेंक दिया जाता है । इसकी सफाई पर ढेरों खर्च तो होता है, विशेष समस्या यह है कि उसे डाला कहां जाए ? आजकल शहरों के नजदीक जो उबड़ खाबड़ जमीनें होती हैं वे इस कचरे से भर जाती हैं ।
बढ़ते कचरे का संकट मनुष्य के लिए पेट भरने , तन ढंकने और सिर छिपाने लायक आच्छादन बनाने की समस्या अभी हल नहीं हो पाई थी कि बड़ी मात्रा में उत्पन्न होने वाले कचरे को ठिकाने लगाने की नई समस्या सामने आ गई । प्रकृति अपने उत्पादित कचरे को ठिकाने लगाती और उपयोगी बनाती रहती है । पशुआें के मल-मूत्र, पेड़ों से गिरे पत्ते आदि सड़ गल कर उपयोगी खाद बन जाते हैं और वनस्पति उत्पादन में काम आते हैं । मनुष्य का मल – मूत्र भी उतना ही उपयोगी है पर इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि उससे खाद न बनाकर नदी – नालों में बहा दिया जाता है और पेय जल को दूषित कर दिया जाता है । इससे दुहरी हानि है, खाद से वंचित रहना और कचरे को नदियों में फेंककर बीमारियों को आमन्त्रित करना । सरकारी तथा गैर सरकारी स्तरों पर किए जा रहे अनेक प्रयासों के बावजूद इन दिनों कचरे में भयानक वृद्धि हो रही है । हर वस्तु कागज, प्लास्टिक की थैली, पत्तल, दोना, डिब्बा आदि में बंद करके बेची जाती है । वस्तु का उपयोग होते ही वह पेकिंग कचरा बन जाती है और उसे जहां – तहां सड़कों, गलियों में फेंक दिया जाता है । इसकी सफाई पर ढेरों खर्च तो होता है, विशेष समस्या यह है कि उसे डाला कहां जाए ? आजकल शहरों के नजदीक जो उबड़ खाबड़ जमीनें होती हैं वे इस कचरे से भर जाती हैं ।
लेखन :अरूण डिके,डॉ. खुशालसिंह पुरोहित
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Thanks, great article.