धान की खेती प्रमुख रोग नियत्रंण प्रबंधन

विश्व में धान (चावल) के कुल उत्पादन का लगभग 80 प्रतिशत हिस्सा कम आय वाले देशों में छोटे स्तर के किसानों द्वारा उगाया जाता है। इसलिए विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में आर्थिक विकास और जीवन में सुधार के लिए दक्ष और उत्पादक धान (चावल) आधारित पद्धति आवश्यक है। अतंर्राष्ट्रीय धान (चावल) वर्ष 2004 ने धान (चावल) को केन्द्र बिंदु मानकर कृषि, खाद्य सुरक्षा, पोषण, कृषि जैव विविधता,पर्यावरण, संस्कृति, आर्थिकी, विज्ञान, लिंगभेद और रोजगार के परस्पर संबंधों को नये नजरिये से देखा है। अंतर्राष्ट्रीय धान (चावल) वर्ष, ‘सूचना प्रदाता’ के रूप में हमारे समक्ष है ताकि सूचना आदान-प्रदान, प्रौद्योगिकी हस्तांतरण और ठोस कार्यों द्वारा धान (चावल) उत्पादक देशों और अन्य सभी देशों के मध्य समन्वय हो सके, जिससे धान (चावल) आधारित पद्धति का विकास और उन्नत प्रबंधन किया जा सके। यह शुरूआत सामूहिक रूप से काम करने का एक सुअवसर है ताकि धान (चावल) के टिकाऊ विकास और धान (चावल) आधारित पद्धतियों में बढ़ते पेचीदा मुद्दों को आसानी से सुलझाया जा सके। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की खुदाइयों में चावल के अवशेष मिले है वैज्ञानिकों का मत है कि भारत में चावल ईसा से 5000 वर्ष पूर्व से उगाया जाता रहा है। चावल का उल्लेख आयुर्वेद एवं हिन्दू ग्रन्थों में भी है। चावल का उपयोग भारत में वैदिक धार्मिक आदि कार्यो में आदिकाल से होता आ रहा है। इन्हीं को आधार मानकर चावल का उत्पत्ति स्थल भारत तथा वर्मा को माना गया है ।

खेती
प्रमुखतः चीन, भारत और इंडोनेशिया में शुरू हुई, जिससे धान (चावल) की तीन किस्में पैदा हुई – जेपोनिका, इंडिका और जावानिका।
भूमि का चुनाव और तैयारी
धान (चावल) की खेती के लिए अच्छी उर्वरता वाली, समतल व अच्छे जलधारण क्षमता वाली मटियार चिकनी मिट्टी सर्वोतम रहती है। सिंचाई की पर्याप्त सुविधा होने पर हल्की भूमियों में भी धान (चावल) की खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है। जिस खेत में धान (चावल) की रोपाई करनी हो, उसमें अप्रैल-मई में हरी खाद के लिए ढैंचे की बुवाई 20-25 कि.ग्रा. बीज प्रति हैक्टर की दर से करें। आवश्यकतानुसार सिंचाई करते रहें ओर जब फसल 5-6 सप्ताह की हो जाए तो उसे मिट्टी में अच्छी तरह मिला दें,तथा खेत में पानी भर दें, जिससे ढैंचा अच्छी तरह से गल-सड़ जाए। अगर हरी खाद का प्रयोग नहीं कर रहे हों तो 20-25 टन गली-सड़ी गोबर की खाद प्रति हैक्टर की दर से खेत में बिखेरकर अच्छी तरह जुताई की जाऐं।
उन्नतशील किस्मों का चुनाव

धान (चावल) की खेती के लिए अपने क्षेत्र विशेष के लिए उन्नत किस्मों का ही प्रयोग करना चाहिए जिसस
कि अधिक से अधिक पैदावार ली जावें। धान (चावल) की प्रमुख किस्में नीचे दी जा रही हैः-
अगेती किस्में (110-115 दिन): इनमें मुख्य रूप से पूसा 2-21, पूसा-33, पूसा-834, पी.एन.आर.
-381, पी.एन.आर.-162, नरेन्द्र धान (चावल)-86, गोविन्द, साकेत-4 और नरेन्द्र धान (चावल)-97 आदि प्रमुख है।
इनकी नर्सरी का समय 15 मई से 15 जून तक है तथा इनकी औसत पैदावार लगभग 4.5-6.
टन/हैक्टेयर तक रहती है।
मध्य अवधि की किस्में (120-125 दिन): किस्में इनमें मुख्य किस्में पूसा-169, पूसा-205, पूसा-44,
सरजू-52, पंतधान (चावल)-10, पंतधान (चावल)-12, आई.आर.-64 आदि प्रमुख है। इनकी नर्सरी डालने का मुख्य
समय 15 मई से 20 जून तक है तथा औसत उपज लगभग 5.5-6.5 टन/हैक्टेयर है।
लंबी अवधि वाली किस्में (130-और इससे ज्यादा): इस वर्ग में पी.आर. 106, मालवीय-36,
नरेन्द्र-359, महसूरी आदि प्रमुख है। इनकी औसत उपज लगभग 6.0-7.0 टन/हैक्टर है तथा
इनकी नर्सरी डालने का मुख्य समय 20 मई से 20 जून तक है।
बासमती किस्में: इनमें मुख्य रूप से पूसा बासमती-1, सुगंध-2, पूसा सुगंध-3, पूसा सुगंध-4, पूसा सुगंध्
ा-5, कस्तूरी-385, बासमती-370, तरावड़ी बासमती आदि प्रमुख है। इनके अतिरिक्त कुछ किस्में
जैसे शरबती, अंगूरी, टेरीकोट आदि है। इन सभी किस्मों की नर्सरी डालने का समय 15 मई से 15
जून तक है।
संकर किस्में: इनमें प्रमुख रूप से पंत संकर धान (चावल)-1, नरेन्द्र संकर धान (चावल)-2, प्रो. एग्रो-6201,पी.एच.बी-71,
एच.आर.आई.-120, आर.एच.-204 और हाल ही में विश्व का प्रथम बासमती संकर धान (चावल) पूसा राइस
हाइब्रिड-10 (पी.आर.एच-10) पूसा, नई दिल्ली में विकसित किया गया है। इन प्रजातियों के
अतिरिक्त भी कुछ निजी कंपनियों की और भी किस्में है, जो विभिन्न क्षेत्रों में उगाई जा रही है।
बीज की मात्रा और चुनाव
चुनी हुई किस्मों का बीज किसी मान्यता प्राप्त संस्था से ही लेना चाहिए। एक बार प्रमाणित बीज
लेने के बाद उसे तीन साल तक बदलने की आवश्यकता नहीं होती है। अगर किसान अपना बीज
प्रयोग कर रहे है तो इस बात का विशेष ध्यान रखें की बीज का अंकुरण प्रतिशत 80-90 प्रतिशत
होना चाहिए। बुआई से पहले स्वस्थ बीजों की छंटनी कर लेनी चाहिए। इसके लिए 10 प्रतिशत नमक के घोल का प्रयोग करते है। नमक का घोल बनाने के लिए 2.0 कि.ग्रा. सामान्य नमक 20 लीटरपानी में घोल लें और इस घोल में 3.0 कि.ग्रा. बीज डालकर अच्छी तरह हिलाएं, इससे स्वस्थ और भारी बीज नीेचे बैठ जाएंगे और थोथे और हल्के बीज ऊपर तैरने लेगेंगे। इस तरह साफ व स्वस्थ छांटा हुआ 20 कि.ग्रा. बीज महीन दाने वाली किस्मो में तथा 25 कि.ग्रा. बीज मोटे दानों की किस्मों में एक हैक्टेयर की रोपाई के लिए पौध तैयार करने के लिए पर्याप्त होता है।
बीज का उपचार
फफूंद और जीवाणुनाशी दवाओं के घोल से बीज का उपचार करने से बीज के द्वारा फैलने वाली
फफूंद और जीवाणु जनित बीमारियों का नियंत्रण हो जाता है। इसके लिए 5 ग्राम इमिसान या 10
ग्राम बाॅविस्टीन और 2.5 ग्राम पोसा माइसिन या 1 ग्राम स्ट्रेप्टोसाइक्लीन या 2.5 ग्राम एग्रीमाइसीन
10 लीटर पानी में घोल लेें। अब 20 कि.ग्रा. छांटे हुए बीज को 25 लीटर उपरोक्त घोल में 24
धंटे के लिए रखें। इस उपचार से जड़ गलन (फूट राॅट), झुलसा (ब्लास्ट) और पत्ती झुलसा रोग
(बैक्टीरियल लीफ ब्लाइट) आदि बीमारियों के नियंत्रण में सहायता मिलती है।
नर्सरी की तैयारी और प्रबंधन
(क) पौधशाला का क्षेत्रफल:- न नर्सरी ऐसी भूमि में तैयार करनी चाहिए जो उपजाऊ, अच्छे जल
निकास वाली व जल स्त्रोत के पास हो। एक हैक्टेयर क्षेत्रफल में धान (चावल) की रोपाई के लिए 1/10 हैक्टेयर (1000 वर्ग मीटर) क्षेत्रफल में पौध तैयार करना पर्याप्त होता है।
(ख) नर्सरी की बुआई का समय नर्सरी बुआइः- धान (चावल) की नर्सरी की बुवाई का सही समय वैसे तो विभिन्न किस्मों पर निर्भर करता है, लेकिन 15 मई से लेकर 20 जून तक का समय बुआई के लिए उपयुक्त पाया गया है।
(ग) नर्सरी बोने की विधि: धान (चावल) नर्सरी भीगी विधि से पौध तैयार करने का तरीका उत्तरी भारत मेंअधिक प्रचलित है। इसके लिए खेत में पानी भरकर 2-3 बार जुताई करते है ताकि मिट्टी लेहयुक्त हो जाए तथा खरपतवार नष्ट हो जाएं। आखिरी जुताई के बाद पाटा लगाकर खेत को समलत कर सुखा लिया जाये। सतह पर पानी सुखने पर खेत को 1.25 से 1.50 मीटर चैड़ी तथा सुविधाजनक लंबी क्यारियों में बां ट लें ताकि बुआई,निराई और सिंचाई की विभिन्न सस्य क्रियाएं आसानी से की जा सकें। क्यारियां बनाने के बाद पौधशाला में 5सें.मी. ऊंचाई तक पानी भर दें और अंकुरित बीजों को समान रूप से क्यारियों में बिखेर दें। अगले दिन सुबह खड़ा पानी निकाल दें और एक दिन बाद ताजे पानी से सिंचाई करें। यह प्रक्रिया 6-7 दिनों तक दोहराएं। इसके बाद खेत में लगातार पानी रखें, परंतु इस बात का ध्यान रखें कि किसी भी अवस्था में पौध पानी में डूबे नहीं।
(घ) रोपाई के लिए पौध की उम्र: सामान्यतः जब पौध 25-30 दिन पुरानी हो जाए तथा उसमें
5-6 पत्तियां निकल जाए तो यह रोपाई के लिए उपयुक्त होती है। यदि पौध की उम्र ज्यादा होगी
तो रोपाई के बाद कल्ले कम फूटते है और उपज में कमी आती है और यदि पौध की उम्र 35 दिन
से अधिक हो गई हो तो उसका उपयोग रोपाई के लिए नहीं करना चाहिए।
पौध की रोपाई
रोपाई के लिए पौध उखाड़ने से एक दिन पहले नर्सरी में पानी भर दिया जाये और पौध उखाड़ते
समय सावधानी रखें। पौधों की जड़ों को धोते समय नुकसान न होने दें तथा पौधों को काफी नीचे
से पकड़ें। पौध की रोपाई पंक्तियों में करें। पंक्ति से पंक्ति की दूरी 20 सें.मी. तथा पौधे से पौधे की
दूरी 10 सें.मी. रखनी चाहिए। एक स्थान पर 2 से 3 पौधे ही लगाएं। इस प्रकार एक वर्गमीटर में
लगभग 50 पौधे ही होने चाहिए।
खाद और उर्वरकों की मात्रा व प्रयोग:
अधिक उपज और भूमि की उर्वरता शक्ति बनाये रखने के लिए हरी खाद या गोबर या कम्पोस्ट का
प्रयोग करना चाहिए। हरी खाद हेतु सनई या ढँचे का प्रयोग किया गया हो तो नाइट्रोजन की मात्रा
कम की जा सकती है, क्योंकि सनई या ढँचें से लगभग 50-60 कि.ग्रा. नाइट्रोजन प्रति हैक्टर प्राप्त
होती है। उर्वरकों का प्रयोग भूमि परीक्षण के आधार पर करना चाहिए। धान (चावल) की बौनी किस्मों के लिए120 कि.ग्रा. नाइट्रोजन, 60 कि.ग्रा. फास्फोरस, 40 कि.ग्रा. पोटाश और 25 कि.ग्रा. जिंक सल्फेट प्रति हैक्टेयर की दर से देना चाहिए। बासमती किस्मों के लिए 100-120 कि.ग्रा. नाइट्रोजन, 50-60 किग्रा. फास्फोरस, 40-50 कि.ग्रा. पोटाश और 20-25 कि.ग्रा. जिंक सल्फेट प्रति हैक्टर देना चाहिए। जबकि संकर धान (चावल) के लिए 130-140कि.ग्रा. नाइट्रोजन, 60-70 कि.ग्रा. फास्फोरस, 50-60 किग्रा. पोटाश, 25-30 कि.ग्रा. जिंक सल्फेट प्रति हैक्टेयर देना चाहिए। यूरिया की पहली तिहाई मात्रा का प्रयोग रोपाई के 5-8 दिन बाद दी जानी चाहिए। जब पौधे अच्छी तरह से जड पकड़ लें। दूसरी एक तिहाई यूरिया की मात्रा कल्ले फूटते समय (रोपाई के 25-30 दिन बाद) तथा शेष एक तिहाई हिस्सा फूल आने से पहले (रोपाई के 50-60 दिन बाद) खड़ी फसल में छिड़काव करके की जानी चाहिए।
फास्फोरस की पूरी मात्रा सिंगल सुपर फास्फेट या डाई अमोनियम फास्फेट (डी.ए.पी.) के द्वारा,
पोटाश की भी पूरी मात्रा, म्यूरेट आॅफ पोटाश के माध्यम से और जिंक सल्फेट की पूरी मात्रा धान (चावल)
की रोपाई करने से पहले अच्छी तरह मिट्टी में मिला देनी चाहिए। यदि किसी कारणवश पौध रोपते
समय जिंक सल्फेट उर्वरक खाद न डाला गया हो तो इसका छिड़काव भी किया जा सकता है।
इसके लिए 15-15 दिनों के अंतराल पर 3 छिड़काव 0.5 प्रतिशत जिंक सल्फेट $2.5 प्रतिशत यूरिया के घोल के साथ करना चाहिए। पहला छिड़काव रोपाई के एक महीने बाद किया जा सकता है।
नील हरित शैवाल का प्रयोग
नील हरित शैवाल का प्रयोग करने से नाइट्रोजन की मात्रा में लगभग 20-25 कि.ग्रा. प्रति हैक्टेयर
की दर से कमी कर सकते है नील हरित शैवाल के प्रयोग के लिए 10-15 कि.ग्रा. टीका (मृदा
आधारित) रोपाई के एक सप्ताह के बाद खड़े पानी में प्रति हैक्टेयर की दर से बिखेर दिया जाता
है। शैवाल का प्रयोग कम से कम तीन साल तक लगातार किया जाना चाहिए। इससे अच्छे परिणाम प्राप्त होते है। मृदा आधारित टीका जिसमें शैवाल के बीजाणु होते है, 10 रूपये प्रति कि.ग्रा. की दर से खरीद सकते है। अगर नील हरित शैवाल का प्रयोग कर रहे हैं, तो इस बात का विशेष ध्यान रखें कि खेत में पानी सूखने नहीं पाए अन्यथा शैवाल जमीन में चिपक जाते हैं और उनकी नाइट्रोजन एकत्रीकरण की क्षमता में कमी जा जाती है।
सिंचाई और जल प्रबंधन
धान (चावल) की फसल के लिए पानी नितांत आवश्यक है परंतु फसल में अधिक पानी भरा रहना आवश्यक नहीं है। रोपाई के 2-3 सप्ताह तक 5-6 से.मी. पानी बराबर खेत में रखना चाहिए। इसके बाद आवश्यकतानुसार खेत में पानी भरा रहना चाहिए। इस बात का विशेष ध्यान रहे कि फुटाव से लेकर दाने भरने तक खेत में नमी की कमी न होने पाये तथा भूमि में दरार न पड़ने पाए, अन्यथा पैदावार में भारी कमी हो सकती है।
निराई, गुड़ाई और खरपतवार नियंत्रण
धान (चावल) के खरपतवार नष्ट करने के लिए खुरपी या पैडीवीडर का प्रयोग किया जा सकता है।
रासायनिक खरपतवार नियंत्रण के लिए खरपतवारनाशी दवाओं का प्रयोग करना चाहिए। धान (चावल) के खेत में खरपतवार नियंत्रण के लिए कुछ शाकनाशियो का उल्लेख सारणी में किया गया है। शाकनाशियों के प्रयोग करने की विधि
1. खरपतवारनाशी रसायनों की आवश्यक मात्रा को 600 लीटर पानी के साथ घोल बनाकर प्रति
हैक्टेयर की दर से समान रूप से छिड़काव करना चाहिए।
2. रोपाई वाले धान (चावल) में खरपतवारनाशी रसायनों की आवश्यक मात्रा को 60 कि.ग्रा. सूखी रेत में अच्छी
तरह मिलाकर रोपाई के 2-3 दिन के बाद 4-5 से.मी. पानी में समान रूप से बिखेर देना चाहिए।
सावधानियाँ
1. प्रत्येक खरपतवारनाशी रसायन के उपयोग से पहले डिब्बे पर लिखे गए निर्देशों तथा उसके
साथ दिए गए पर्चे को ध्यानपूर्वक पढ़े तथा उसमें बताए गए तरीके का विधिवत पालन करें।
2. शाकनाशी रसायनों की पर्याप्त मात्रा का उचित समय पर छिड़काव करें।
3. पानी का उचित मात्रा में प्रयोग करें।
4. शाकनाशी और पानी के घोल को छानकर ही स्प्रे मशीन में भरना चाहिए।
5. शाकनाशी का पूरे खेत में समान रूप से छिड़काव करें।
6. छिड़काव करते समय मौसम साफ होना चाहिए तथा हवा की गति तेज नही होनी चाहिए।
7. छिड़काव के समय भूमि में पर्याप्त नमी होनी चाहिए।
प्रमुख रोग और उनकी रोकथाम:
(1) ब्लास्ट या झुलसा रोग:
यह रोग फफूंद से फैलता है। पौधे के सभी भाग इस बीमारी द्वारा प्रभावित होते है। प्रारम्भिक अवस्था में यह रोग पत्तियों पर धब्बे के रूप में दिखाई देता है। इनके धब्बों के किनारे कत्थई रंग के तथा बीच वाला भाग राख के रंग का होता है। रोग के तेजी से आक्रमण होने पर बाली का आधार से मुड़कर लटक जाना। फलतः दाने का भराव भी पूरा नहीं हो पाता है।
नियत्रंण:
(1) उपचारित बीज ही बोयें, (2) जुलाईके प्रथम पखवाड़े में रोपाई पूरी कर लें। देर
से रोपाई करने पर झुलसा रोग के लगने की संभावना बढ़ जाती है, (3) यदि पत्तियों पर भूरे रंग के
धब्बे दिखाई देने लगे तो कार्बेन्डाजिम 500 ग्राम या हिनोसाव 500 मि.ली. दवा 500-600 लीटर पानी
में घोलकर प्रति हैक्टेयर में छिड़काव करंे। इस तरह इन दवाओं का छिड़काव 2-3 बार 10 दिनों
के अंतराल पर आवश्यकतानुसार किया जा सकता है, (4) संवेदनशील किस्मों में बीमारी आने पर
नाइट्रोजन का कम प्रयोग करें और (5) रोगग्रस्त फसल के अवशेषों को कटाई के बाद जला देना
चाहिए।
(2) पत्ती का झुलसा रोग:-
यह बीमारी जीवाणु के द्वारा होती है। पौधों में यह रोग छोटी अवस्था से
लेकर परिपक्व अवस्था तक कभी भी हो सकता है। इस रोग में पत्तियों के किनारे ऊपरी भाग से
शुरू होकर मध्य भाग तक सूखने लगते है। सूखे पीले पत्तों के साथ-साथ राख के रंग जैसे धब्बे
भी दिखाई देते है। पूरी फसल झुलसी प्रतीत होती है। इसलिए इसे झुलसा रोग कहा गया है।
नियंत्रण:-
(1) इसके नियंत्रण के लिए नाइट्रोजन की टाॅपड्रेसिंग नहीं करनी चाहिए। (2) पानी
निकालकर प्रति हैक्टेयर स्ट्रेप्टोसाइक्लीन 15 ग्राम या 500 ग्राम काॅपर आॅक्सीक्लोराइड जैसे
ब्लाइटाक्स 50 या फाइटेलान का 500 लीटर पानी में घोल बनाकर 10-12 दिन के अंतराल पर 2-3
छिड़काव करने चाहिए, (3) जिस खेत में रोग के लक्षण हो उसका पानी दूसरे खेत में न जाने दें।
इससे बीमारी के फैलने की आशंका रहती है।
(3) गुतान झुलसा (शीथ ब्लाइट):-
यह बीमारी भी फफूंद द्वारा फैलती है। इसके प्रकोप से पत्ती
के शीश (गुतान) पर 2-3 से.मी. लंबे हरे से भूरे धब्बे पड़ते है जो धीरे-धीरे भूरे रंग में बदल जाते
है। धब्बों के चारों तरफ नीले रंग की पतली धारी-सी बन जाती है।
नियंत्रण:-
इस बीमारी की रोकथाम के लिए निम्नलिखित दवाओं का छिड़काव करें-(1) कार्बेन्डाजिम
500 ग्राम दवा 500 लीटर पानी में घोलकर प्रति हैक्टेयर की दर से छिड़काव करें, (2) बाॅविस्टीन
की 300 मि.ली. मात्रा या हीनोसान 1 लीटर मात्रा का 500 लीटर पानी में घोलकर प्रति हैक्टेयर की
दर से छिड़काव करें (3) अगर बीमारी के लक्षण दिखाई दें तो नाइट्रोजन का छिड़काव कम करे दें।
4 . खैरा रोग:-
रोग यह बीमारी धान (चावल) में जस्ते की कमी के काण होती है। इसके लगने पर निचली पत्तियां
पीली पड़नी शुरू हो जाती हैं और बाद में पत्तियों पर कत्थई रंग के छिटकवा धब्बे उभरने लगते
है। रोग की तीव्र अवस्था में रोग ग्रसित पत्तियां सूखने लगती है। कल्ले कम निकलते है और
पौधों की वृद्धि रूक जाती है।
नियंत्रण:-
(1) यह बीमारी न लगे इसके लिए 25 कि.ग्रा. जिंक सल्फेट प्रति हैक्टेयर की दर से
रोपाई से पहले खेत की तैयारी के समय डालना चाहिए। (2) बीमारी लगने के बाद इसकी रोकथाम
के लिए 5 कि.ग्रा. जिंक सल्फेट तथा 2.5 कि.ग्रा. चूना 600-700 लीटर पानी में घोल बनाकर एक
हैक्टेयर में छिड़काव करंे। अगर रोकथाम न हो तो 10 दिन बाद पुनः छिड़काव करें। पौधशाला में
खैरा के लक्षण प्रकट होने पर इसी घोल का छिड़काव करना चाहिए।
5 . टुंग्रो विषाणु रोग:-
टुंग्रो यह रोग हरे फुदके कीट के माध्यम से फैलता है। यदि रोग का प्रकोप
प्रारंभिक अवस्था यानी 60 दिन में पूर्ण होता है इससे पौधे रोग के कारण बौने रह जाते है, कल्ले
भी कम बनते है, पत्तियों का रंग सतंरे के रंग समान या भूरा हो जाता है। रोगग्रस्त पौधों में बालियां
देर से बनती है, जिनमें दाने या तो पड़ते ही नहीं और यदि पड़ते है तो बहुत हल्कें।
नियंत्रण:-
(1) इस बीमारी की रोकथाम के लिए जेसे ही खेत में एक-दो रोगी पौधे दिखाई दें,
वैस ही उन्हें खेत से बाहर निकाल देना चाहिए, (2) रोपाई से पूर्व पौध की जड़ों को 0.62 प्रतिशत
क्लोरोपायरीफाॅस घोल में डुबाना चाहिए, (3) कल्ले बनते समय तथा बालिया आने पर 8-10 कीट
प्रति हिल दिखाई देने पर कार्बोफ्यूरान 3 जी प्रति हैक्टेयर 20 कि.ग्रा. की दर से 3-5 से.मी. पानी
में प्रयोग करना चाहिए।
धान (चावल) के प्रमुख कीट और नियंत्रण
धान (चावल) की फसल पर निम्नलिखित कीट-पतंगे मुख्य रूप से नुकसान पहुंचाते है-
1 . तना छेदक (स्टेम बोरर):-
स्टेम बोररछेदक यह धारीदार गुलाबी, पीले या सफेद रंग का होता है। इस कीड़े की
सूंडी नुकसान पहुंचाती है। फसल की प्रारभिक अवस्था में इसके प्रकोप से पौधों का मुख्य तना सूख
जाता है, इसे ‘डैड हर्ट’ कहते है।
नियंत्रण:-
(1) इसके नियंत्रण के लिए रोपाई के 20-25 और 70 दिन बाद 250 मि.ली. डेमेक्रान
85 ई.सी. या 800 मि.ली. मोनोक्रोटोफास 30 डब्ल्यू.पी. की मात्रा 750 लीटर पानी में घोलकर
छिड़काव करने या 25 कि.ग्रा. कार्बोफ्यूराॅन रोपाई के 30 और 70 दिन बाद खड़े पानी में डालें, (2)
तना छेदक कीड़े की सूंडी के अगले साल फैलने से रोकने के लिए धान (चावल) की जड़ों को जलाकर समाप्त
कर दें या गहरी जुताई करके नष्ट करे दें, (3) तना छेदक कीड़े को लाइट ट्रेप से पकड़कर समाप्त
कर सकते है।
2 . पत्ती लपेट कीड़ा (लीफ फोल्डर):-
इस कीड़े की सूंडी पौधों की कोमल पत्तियों के सिर की
तरफ से लपेटकर सुरंग-सी बना लेती है और उसके अंदर-अंदर खाती रहती है। फलस्वरूप पौधों की पत्तियोें का रंग उड़ जाता है और पत्तियां सिर की तरफ से सूख जाती है। अधिक नुकसान
होने पर फसल सफेद और जली-सी दिखाई देने लगती है। अगस्त से लेकर अक्टूबर तक इसके
द्वारा नुकसान होता है।
नियंत्रण:-
(1) कीड़ों को लाइट ट्रेप पर इकठ्ठा करके मार सकते है।(2) एण्डोसल्फान (35 ईसी.
) दवा की एक लीटर मात्रा 500-600 लीटर पानी में घोलकर प्रति हैक्टेयर की दर से छिड़काव
किया जाये।
3. धान (चावल) का गंधी कीड़ा:-
गंध्इस कीड़े के प्रौढ़ व निम्फ दोनों दूधिया दानों और पत्तियों का रस चूसते
है। फलस्वरूप दाना आंशिक रूप से भरता है या खोखला रह जाता है। इस कीड़े को छूने से या
छेड़ने से बहुत तीखी गंध निकलती है। इसी कारण इसे गंधी बग भी कहते है।
नियंत्रण:-
इस कीडे़ की रोकथाम के लिए फाॅलीडाल या मैलाथियान पाउडर का 30 कि.ग्रा. प्रति
हैक्टेयर की दर से बुरकाव करें या इण्डोसल्फाॅन 35 ई.सी. की 1.2 लीट र दवा 500-600 लीटर
पानी में घोलकर प्रति हैक्टेयर की दर से छिड़काव करें।
4. मधुवा या फुदके (हापर):
ये कीड़े बहुत छोटे आकार के और भूरे रंगे के होते हैं जो कि पौध्
की नीचली सतह पर कल्लों के बीच में पाए जाते हैं और तने और पत्तियों का रस चूसते हैं। इसके
प्रकोप से हरी-भरी दिखने वाली फसल अचानक झुलस जाती है। झुलसे हुए हिस्से को ‘होपर बर्न’
कहते है।
नियंत्रण:-
इन कीड़ों के नियंत्रण के लिए फ्यूराडाॅन 3 जी. की 33 कि.ग्रा. प्रति हैक्टेयर या थिमेट
10 जी. की 10 कि.ग्रा. प्रति हैक्टेयर मात्रा पौधों के निचले हिस्सों में डालनी चाहिए।
चूहों का नियंत्रण
धान (चावल) की फसल में चूहे भी बहुत नुकसान पहुंचाते है। चूहों का नियंत्रण एक सामूहिक कार्य है।
एकाकी नियंत्रण अप्रभावी होता है। इनके नियत्रंण के लिए सभी उपलब्ध विधियों जैसे चूहों के फंदे,
विषयुक्त खाद्य, साइनों गैस उपयोग में लाना इत्यादी। विषयुक्त खाद्य के सही उपयोग के लिए पहले
दिन विषरहित खाद्य देना चाहिए। दूसरे दिन 19 भाग मक्का, गेहूं, चावल, एक भाग रेटाफिन या
रोडाफिन का तेल व चीनी के साथ मिलाकर देना चाहिए। एक खाद्य एक सप्ताह तक देने के बाद
जिंक फास्फाइड मिला हुआ खाद्य 95 भाग (भार से) ज्वार के दाने, 2.5 भाग जिंक फास्फाइड तथा
उतना ही भाग सरसों का तेल मिलाकर देना चाहिए। मरे हुए चूहों को जमीन में दबा देना चाहिए।
कटाई और मड़ाई
बालियों निकलने के लगभग एक माह बाद सभी किस्में पक जाती है। कटाई के लिए जब 80
प्रतिशत बालियों में 80 प्रतिशत दाने पक जाएं और उनमें नमी 20 प्रतिशत हो, वह समय कटाई के लिए उपर्युक्त होता है। कटाई दरांती से जमीन की सतह पर व ऊपर भूमियों में भूमि की सतह से
15-20 से.मी. ऊपर से करनी चाहिए। मड़ाई साधारणतया हाथ से पीटकर की जाती है। शक्ति
चालित थ्रेसर का उपयोग भी बड़े किसान मड़ाई के लिए करते है। कम्बाईन के द्वारा कटाई और
मड़ाई का कार्य एक साथ हो जाता है। मड़ाई के बाद दानों की सफाई कर लेते है। सफाई के बाद
धान (चावल) के दानों को अच्छी तरह सुखाकर ही भण्डारण करना चाहिए। भण्डारण से पूर्व दानों को 12
प्रतिशत नमी तक सुखा लेते है।
उपज
समस्त उपर्युक्त सस्य क्रियाओं व प्रजातियां अपनाने पर शीघ्र पकने वाली प्रजातियों की प्रति हैक्टेयर
औसत उपज 40 से 50 क्विंटल, मध्यम व देर से पकने वाली प्रजातियों से प्रति हैक्टेयर उपज 50
से 60 क्विंटल और संकर धान (चावल) से प्रति हैक्टेयर औसत उपज 60-70 क्विंटल प्राप्त होती है।

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