क्षेत्रफल में बढ़ोत्तरी के मुख्य सूत्र —
-
उज्जैन, इंदौर, मंदसौर, रतलाम, देवास, शाजापुर व राजगढ़ में बढ़ोत्तरी मुख्य रूप से काबुली चना, सिंगल डॉलर व डबल डॉलर की बढ़ती मांग समुचित बाजार दर तथा निष्चित आय का सूचक
-
टीकमगढ़, सागर, छतरपुर के क्षेत्रफल में वृद्वि मुख्य रूप से बुन्देलखण्ड अंचल में लगातार अल्प वर्षा को जाता है।
-
क्षेत्रफल में हुए विस्तार को सतत् बनाए रखने के लिए
-
विशेष प्रसार, फसल प्रबंधन, सूक्ष्म पोषक तत्वों के प्रयोग, कीट-व्याधि प्रबंधन, भण्डारण एवं प्रसंस्करण गुणवत्ता, उत्पाद ब्रान्डिंग तथा विपणन व्यवस्था को पारदर्षी रखना आदि बिंन्दुओं का समावेष आवष्यक है।
खेत की तैयारी
1. चना के लिए खेत की मिट्टी बहुत ज्यादा महीन या भुरभुरी बनाने की आवश्यकताा नही होती।
2. बुआई के लिए खेत को तैयार करते समय 2-3 जुताईयाँ कर खेत को समतल बनाने के लिए पाटा लगाऐं। पाटा लगाने से नमी संरक्षित रहती है।
मध्यप्रदेष के लिए अनषंसित प्रजातियां
(अ) काबुली चना की डालर एवं डबल डालर प्रजातियों का विकल्प
किस्में |
अनुषंसित वष्र |
अवधि (दिनों में) |
उपज (क्विं/हे.) |
प्रमुख विषेषताएं |
|
जे.जी.के 1 |
2003 |
110-115 | 15-18 | पौधे मध्यम लम्बे, कम फैलने वाले, पत्तियां बड़ी सफेद फूल, क्रीम सफेद रंग का बड़े आकार का बींज | |
जे.जी.के 2 |
2007 |
95-110 | 15-18 | जल्दी पकने वाली, बड़ी पत्तियां, कम फेलाव, सफेद फूल, सफेद क्रीम रंग का बड़ा दाना सौ दानों का वजन 33-36 ग्राम, पकने में उत्तम, बहुरोग रोध | |
जे.जी.के 3 |
2007 |
95 -110 | 15-18 | काबुली चने की बड़े दाने की जाति, बीज चिकना, सौ दानों का वजन 44 ग्राम, प्रचुर शाखाऐं |
(ब) देषी चने की प्रजातियाँ
किस्में |
अनुषंसित वष्र |
अवधि (दिनों में) |
उपज (क्विं/हे.) |
प्रमुख विषेषताएं |
|
जे.जी. 14 |
2009 | 95-110 | 20-25 |
दाल बनाने के लिए उपयुक्त, अधिक तापमान सहनषिल, उकठा रोग प्रतिरोधी, मध्य प्रदेष के सिचित क्षेत्रों, देर से बोने के लिए अनुषंसित |
|
जाकी 9218 | 2006 | 112 | 18-20 |
कम फैलाव वाला पौधा, प्रोफूज शाखायें, पौधा हल्का भूरे, दाने कोणीय आकार, चिकनी सतह, सौ दाने का वनज 20-27 ग्राम, सिंचित एवं असिंचित खेती के लिये अनुशंसित। |
|
जे.जी 63 | 2006 | 110-120 | 20-25 |
उकठा, कालर सड़न, सूखा जड़ सड़न हेतु रोधी क्षमता, पाड़ बोरर हेतु सहनशील, सिंचित/असिंचित हेतु उपयुक्त। पूरे मध्य प्रदेश हेतु उपयुक्त। प्रचुर मात्रा में शाखायें तथा बड़ी फलियाँ, बीज पीला भूरा मध्यम बड़े आकार के। |
|
जे.जी 412 | 2004 | 90-100 | 15-18 |
सोयाबीन-आलू- चना फसल प्रणली हेतु उपयुक्त देर से बोनी हेतु अनुशंसित। चना फुटाने में उत्तम |
|
जे.जी 130 | 2002 | 100-120 | 19 |
हल्का फैलाव वाला पौधा जिसमें प्रचुर मात्रा में शाखायें आती है, हल्की हरी पत्तियाँ, बैगनी तना एवं गहरे गुलाबी फूल, हल्का बादामी भूरे रंग का बड़ा कोणीय आकार का चिकना बीज, उकठा प्रतिरोधी, असिंचित क्षेत्र हेतु भी उपयुक्त। |
|
जे.जी 16 | 2001 | 110-120 | 18-20 |
यह किस्म असिंचित एवं सिंचति क्षेत्र हेतु उपयुक्त है, मध्यम आकार का चिकना बीज, उकठा रोग हेतु सहनषील। |
|
जे.जी 11 | 1999 | 100-110 | 15-18 |
बड़ा चिकना कोणीय आकार का; बीज, उकठा, रोधी क्षमता, सूखा जड़ सड़न एवं जड़ सड़न रोधी, सिंचित व असिंचित क्षेत्रों हेतु उपयुक्त। |
|
जे.जी 322 322 | 1997 | 110-115 | 18-20 |
पौधे मध्यम लम्बे, आवरण चिकना, बादामी हिस्सा निकला हुआ, उकठा रोग प्रतिरोधी, पूरे मध्य प्रदेष हेतु सिचित क्षेत्रों के लिए उपयुक्त, निमाण क्षेत्र के लिए अनुषंसित |
|
जे.जी 218 | 1996 | 110-120 | 15-18 |
पत्तियां गहरी हरी, बादामी भूरे रंग की, कोणीय चिकना बड़ा बीज, उकठा रोग (फयूजेरियम विल्ट) हेतु प्रतिरोधक क्षमता, मालवा क्षेत्र के लिए अनुषंसित |
|
जे.जी 74 | 1991 | 120-125 | 15-18 |
फूल गुलाबी रंग का; इसके बीज का आवरण झुर्रीदार, सिकुड़ा, दानों की ऊपरी सतह खुरदुरी, उकठा हेतु प्रतिरोधक क्षमता, साथ ही अनाज भंडारण कीड़ों के प्रति सहनषील हैं देरी से बोनी हेतु मध्य भारत के लिए अनुषंसित |
|
जे.जी 315 | 1984 | 115-125 | 15-18 |
सबसे प्रचलित किस्म, उकठा रोग के लिये प्रतिरोधक क्षमता रखती है। देर से बोनी हेतु भी उपयुक्त। मध्य भारत के लिए अनुषंसित |
बीज उपचार
रोग नियंत्रण हेतुः
1. उकठा एवं जड़ सड़न रोग से फसल के बचाव हेतु 2 ग्राम थायरम 1 ग्राम कार्बेन्डाजिम के मिश्रण से प्रति किलो बीज को उपचारित करें । या
2. बीटा वेक्स 2 ग्राम/किलो से उपचारित करें।
कीट नियंत्रण हेत:
1. थायोमेथोक्साम 70 डब्ल्यू पी 3 ग्राम/किलों बीज की दर से उपचारित करें
बीज उपचार –
रोग नियंत्रण हेतुः
1. उकठा एवं जड़ सड़न रोग से फसल के बचाव हेतु 2 ग्राम थायरम 1 ग्राम कार्बेन्डाजिम के मिश्रण से प्रति किलो बीज को उपचारित करें । या
2. बीटा वेक्स 2 ग्राम/किलो से उपचारित करें।
कीट नियंत्रण हेत:
1. थायोमेथोक्साम 70 डब्ल्यू पी 3 ग्राम/किलों बीज की दर से उपचारित करें
बीज उपचार –
पोषक तत्व उपलब्ध कराने हेतु
जीवाणु संवर्धनः राइजोवियम एवं पी.एस.बी. प्रत्येक की 5 ग्राम मात्रा प्रतिकिलो बीज की दर से उपचारित करें ।
2. 100 ग्राम गुड़ का आधा लिटर पानी में घोल बनायें घोल को गुनगुना गर्म करें तथा ठंडा कर एक पैकेट राइजोवियम कल्चर मिलाऐं ।
3. घोल को बीज के ऊपर समान रूप से छिड़क दें और धीरे-धीरे हाथ से मिलाऐं ताकि बीज के ऊपर कल्चर अच्छे से चिपक जाऐं।
4. उपचारित बीज को कुछ समय के लिए छाँव में सुखाऐं।
5. पी.एस.बी. कल्चर से बीज उपचार राईजोवियम कल्चर की तरह करें।
6. मोलेब्डनम 1 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करें ।
बुआई का समय –
-
असिंचित अवस्था में चना की बुआई अक्टूबर के द्वितीय सप्ताह तक कर देनी चाहिए।
-
चना की खेती, धान की फसल काटने के बाद भी की जाती है, ऐसी स्थिति में बुआई दिसंबर के मध्य तक अवष्यक कर लेनी चाहिए।
-
बुआई में अधिक विलम्ब करने पर पैदावार कम हो जाती है। तथा फसल में चना फली भेदक का प्रकोप भी अधिक होने की सम्भावना बनी रहती है। अतः अक्टूबर का प्रथम सप्ताह चना की बुआई के लिए सर्वोत्तम होता है।
क्षेत्रफल में बढ़ोत्तरी के मुख्य सूत्र — | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
|
|||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
खेत की तैयारी |
|||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
1. चना के लिए खेत की मिट्टी बहुत ज्यादा महीन या भुरभुरी बनाने की आवश्यकताा नही होती। |
|||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
मध्यप्रदेष के लिए अनषंसित प्रजातियां |
|||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
(अ) काबुली चना की डालर एवं डबल डालर प्रजातियों का विकल्प
(ब) देषी चने की प्रजातियाँ
|
|||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
बीज उपचार |
|||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
रोग नियंत्रण हेतुः कीट नियंत्रण हेत: |
|||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
बीज उपचार – |
|||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
पोषक तत्व उपलब्ध कराने हेतु |
|||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
बुआई का समय – |
|||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
|
|||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
बुआई |
-
क्षेत्रवार संस्तुत रोगरोधी प्रजातियाँ तथा प्रमाणिक बीजों का चुनाव कर उचित मात्रा में प्रयोग करें।
-
खेत पूर्व फसलों के अवषोषों से मुक्त होना चाहिये। इससे भूमिगत फफूंदों का विकास नहीं होगा।
-
बोने से पूर्व बीजो की अंकुरण क्षमता की जांच स्वयं जरूर करें। ऐसा करने के लिये 100 बीजों को पानी में आठ घंटे तक भिगो दें। पानी से निकालकर गीले तौलिये या बोरे में ढक कर साधारण कमरे के तामान पर रखें। 4-5 दिन बाद अंकुरितक बीजों की संख्या गिन लें।
-
90 से अधिक बीज अंकुरित हुय है तो अकुरण प्रतिषत ठीक है। यदि इससे कम है तो बोनी के लिये उच्च गुणवत्ता वाले बीज का उपयोग करें या बीज की मात्रा बढ़ा दें।
बुआई की विधि; –
- समुचित नमी में सीडड्रिल से बुआई करें।
- खेत में नमी कम हो तो बीज को नमी के सम्पर्क में लाने के लिए बुआई गहराई में करें तथा पाटा लगाऐं।
- पौध संख्या 25 से 30 प्रति वर्ग मीटर के हिसाब से रख्ेा ।
- पंक्तियों (कूंड़ों) के बीच की दूरी 30 से.मी. तथा पौधे से पौधे की दूरी 10 से.मी. रखे ।
- सिंचित अवस्था में काबुली चने में कूंड़ों के बीच की दूरी 45 से.मी. रखनी चाहिए।
- पछेती बोनी की अवस्था में कम वृद्धि के कारण उपज में होने वाली क्षति की पूर्ति के लिए सामान्य बीज दर में 20-25 तक बढ़ाकर बोनी करें।
- देरी से बोनी की अवस्था में पंक्ति से पंक्ति की दूरी घटाकर 25 से.मी. रखें।
बीज दर:-
चना के बीज की मात्रा दानों के आकार (भार), बुआई के समय विधि एवं भूमि की उर्वराषक्ति पर निर्भर करती है
- देषी छोटे दानों वाली किस्मों का 65 से 75 कि.ग्रा./हे. जे.जी. 315, जे.जी.74, जे.जी.322, जे.जी.12, जे.जी. 63, जे.जी. 16
- मध्यम दानों वाली किस्मों का 75-80 कि.ग्रा./हे. जे.जी. 130, जे.जी. 11, जे.जी. 14, जे.जी. 6
- काबुली चने की किस्मों का 100 कि.ग्रा./हे. की दर से बुवाई करंे जे.जी.के 1, जे.जी.के 2, जे.जी.के 3
खाद एवं उर्वरक
- उर्वरकों का उपयोग मिट्टी परीक्षण के आधार पर ही किया जाना चाहिए।
- चना के पौधों की जड़ों में पायी जाने वाली ग्रंथियों में नत्रजन स्थिरीकरण जीवाणु पाये जाते हैं जो वायुमण्डल से नत्रजन अवषोषित कर लेते है तथा इस नत्रजन का उपयोग पौधे अपनी वृद्धि हेतु करते हैं।
- अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए 20-25 किलोग्राम नत्रजन 50-60 किलोग्राम फास्फोरस 20 किलोग्राम पोटाष व 20 किलोग्राम गंधक प्रति हेक्टेयर की दर से उपयोग करे ।
- वैज्ञानिक षोध से पता चला है कि असिंचित अवस्था में 2 प्रतिषत यूरिया या डी.ए.पी. का फसल पर स्प्रे करने से चना की उपज में वृद्धि होती है।
डाई अमोनियम फास्फेट (डी.ए.पी.) | एलीमैन्टल सल्फर | म्यूरेट ऑफ़ पोटाश |
सिंचाई प्रबंध – | ||||||||||||||||||||||
खरपतवार नियंत्रण कृषि में उत्पादन में कमीं के कई कारक हैं जिनमें खरपतवारांे की उपस्थिति फसलों की उपज मंे 15-35 प्रतिषत हानि पहुंचा सकती है।
|
||||||||||||||||||||||
प्रमुख रोग एवं नियंत्रण उकठा / उगरा रोग :- | ||||||||||||||||||||||
लक्षण
|
||||||||||||||||||||||
नियंत्रण विधियाँ :- | ||||||||||||||||||||||
|
||||||||||||||||||||||
नियंत्रण विधियाँ:- | ||||||||||||||||||||||
|
||||||||||||||||||||||
प्रमुख कीट एवं नियंत्रण चना फलीभेदक | ||||||||||||||||||||||
|
||||||||||||||||||||||
समेकित कीट प्रबंधन | ||||||||||||||||||||||
3. अंतर्वती फसल – चना फसल के साथ धनियों/सरसों एवं अलसी को हर 10 कतार चने के बाद 1-2 कतार लगाने से चने की इल्ली का प्रकोप कम होता है तथा ये फसलें मित्र कीड़ों को आकर्षित करती हैं । 4. फसल- चना फसल के चारों ओर पीला गेन्दा फूल लगाने से चने की इल्ली का प्रकोप कम किया जा सकता है । प्रौढ़ मादा कीट पहले गेन्दा फूल पर अन्डे देती है । अतः तोड़ने योग्य फूलों कोसमय-समय पर तोड़कर उपयोग करने से अण्डे एवं इल्लियों की संख्या कम करने में मदद् मिलती है। |
||||||||||||||||||||||
जैविक नियंत्रण | ||||||||||||||||||||||
1. न्युक्लियर पोलीहैड्रोसिस विषाणुः आर्थिक हानि स्तर की अवस्था में पहुंचने परसबसे पहले जैविक कीट नाषी एच को मि प्रति हे के हिसाब से लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करना चाहिए।
1. जैविक कीटनाषी में विषाणु के कण होते हैं जो सुंडियों द्वारा खाने पर उनमें विषाणु की बीमारी फैला देते हैं जिससे वे पीली पड़ जाती है तथा फूल कर मर जाती हैं। 2. रोगग्रसित व मरी हुई सुंडियाँ पत्तियों व टहनियों पर लटकी हुई नजर आती हैं। 3. कीटभक्षी चिडि़यों को संरक्षण फलीभेदक एवंकटुआ कीट के नियंत्रण में कीटभक्षी चिडि़यों का महत्वपूर्ण योग दान है। साधारणतयः यह पाया गया है कि कीटभक्षी चिडि़याँ प्रतिषत तक चना फलीभेदक की सूडी को नियंत्रित कर लेती है। |
||||||||||||||||||||||
जैविक नियंत्रण | ||||||||||||||||||||||
1. परजीवी कीड़ों को बढ़ावा देने के लिए अधिक पराग वाली फसल जैसे धनिया आदि को खेत के चारों ओर लगाना चाहिए।
2. कीटभक्षी चिडि़यों को आकर्षित एवं उत्साहित करने के लिए उनके बैठने के लिए स्थान बनाने चाहिए सुंडियों का आक्रमण होने से पहले यदि खेत में जगह पर तीन फुट लंबी डंडियाँ टी एन्टीनाआकार मंे लगा दी जाये ंतो इन पर पक्षी बैठेंगे जो सूंडियों को खा जाते हैं। इन डंडियों को फसल पकने से पहले हटा दें जिससे पक्षी फसल के दानों को नुकसान न पहुंचायें। |
||||||||||||||||||||||
रासायनिक नियंत्रण | ||||||||||||||||||||||
|
||||||||||||||||||||||
कीटनाशी रसायन | ||||||||||||||||||||||
|
||||||||||||||||||||||
घुन का निंयत्रण | ||||||||||||||||||||||
|
||||||||||||||||||||||
उपाय | ||||||||||||||||||||||
|
||||||||||||||||||||||
कटाई, मड़ाई एवं भण्डारण | ||||||||||||||||||||||
चना की फसल की कटाई विभिन्न क्षेत्रों में जलवायु, तापमान, आर्द्रता एवं दानों में नमी के अनुसार विभिन्न समयों पर होती है।
टूटे-फूटे, सिकुडत्रे दाने वाले रोग ग्रसित बीज व खरपतवार भूसे और दानें का पंखों या प्राकृतिक हवा से अलग कर बोरों में भर कर रखे । भण्डारण से पूर्व बीजों को फैलाकर सुखाना चाहिये। भण्डारण के लिए चना के दानों में लगभग 10-12 प्रतिशत नमीं होनी घुन से चना को काफी क्षति पहुंचती है, अतः बन्द गोदामों या कुठलों आदि में चना का भण्डारण करना चाहिए। साबुतदानों की अपेक्षा दाल बनाकर भण्डारण करने पर घुन से क्षति कम होती है। साफ सुथरें नमी रहित भण्डारण ग्रह में जूट की बोरियाँ या लोहे की टंकियों में भरकर रखना चाहिये। |
||||||||||||||||||||||
अधिक उपज प्राप्त करने हेतु प्रमुख पांच बिन्दु | ||||||||||||||||||||||
|