बायोपेस्टीसाइड्स का उपयोग, इसके लाभ का विवरण निम्नानुसार है।
ट्राईकोडर्मा:- ट्राईकोडर्मा एक मित्र फफूंद है जो फसलों में लगने वाले रोग जैसे जडग़लन, उखटा, तनागलन एवं कॉलर रोट परजीवी रोग कारक फफूंद की वृद्धि रोककर उन्हे धीरे-धीरे नष्ट करता है। जिसके फसलों के बीजों को बुआई से पूर्व उपचारित करने पर कई बीमारियों से फसल को बचाया जा सकता है। यह वातावरण, पशुओं एवं मनुष्य के लिये सुरक्षित साथ ही कम खर्चिला तथा जैविक फफूंदनाशी है। पौधों में रोग प्रतिरोधक क्षमता तथा रसायनिक नियंत्रण अप्रभावी सिद्ध हो जाते हैं। वहां पर ट्राइकोडर्मा द्वारा जैविक उपचार करना संभव है।
ब्रोमोडायलिन:- चूहें खेत में वृद्धि कर रहीत व पकी हुई फसल के मूल्यवान दानों को खाकर नुकसान करते हैं। इनकी की रोकथाम हेतु ब्रोमोडायलिन (0.005 प्रतिशत) डेढ़ किलो प्रति हेक्टर के हिसाब से उपयोग कर फसलों को चूहों से बचाया जा सकता है।
लाइट ट्रेप:- यह विधि उन्ही कीटों का नियंत्रित करती है जो प्रौढ़ भृंग एवं मॉथ रात्रि के समय प्रकाश की ओर आकर्षित होकर लाइट ट्रेप के नीचे पाये जाने वाली बक्से में एकत्रित हो जाते हंै, जहां पर लाइट ट्रेप के नीचे चौड़े पात्र में केरोसीन युक्त पानी भरकर रखते है। जिससे प्रकाशपाश की ओर आकर्षित होकर गिरने वाले भृंग व मॉथ मर जाते है। यह एक सरल व सुगम तरीका है, इसमें पर्यावरण को किसी प्रकार का नुकसान पहुंचाये बिना ही कीटों को नियंत्रित किया जा सकता है। इस विधि से भृंगों एवं मॉथ को नष्ट करने के साथ-साथ सघनता का आकलन कर अन्य नियंत्रण उपाय अपनाने जा सकते है।
फेरोमेन ट्रेप एवं ल्योर:- मादा कीट के जननांग से निकलने वाले गंध या ल्यूर से एक प्रकार का फेरोमेन होता हैं जो कि नर कीटों का अपनी और आकर्षित करने के लिय इन फेरोमेन रसायनों को रबर के टुकड़ों में सैपटा के रूप में लगाया जाता है ट्रेप केा मिटटी से करीबन 2 फिट उंचाई से लगाते है जिसके साथ नीचे प्लास्टिक की थैली बैग से जुड़ी रहती है जिसमें नर कीट एकत्रित होते हैं और इन्हें प्रतिदिन एकत्रित करके नष्ट करके जमीन में गाड़ दिया जाता है। यह तरीका पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुंचाता है। इस विधि से न केवल हानिकारक कीट वयस्कों को समाप्त किया जा सकता है वरन् प्रतिदिन उनकी उपस्थिति का आकलन कर सघनता की जांच से कीट के प्रकोप का ई.टी.एल. स्तर को भी परखा जा सकता है।
न्यूक्लियर पॉलीहाइड्रोसिस वायरस (एन.पी.व्ही):- एन.पी.व्ही एक प्रकार का विषाणु है जो कि एक जाति विशेष के हानिकारक कीटों का सफलता पूर्वक नियंत्रण करता है। यह पूर्णयता सुरक्षित जैविक कारक है। जिसका वातावरण ( अन्य परजीवी, परभक्षी , पक्षी एवं मानव जाति) पर कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ता है यह विषाणु मुख्यतया प्रोटीन के बने होते है, जिनकी संरचना डी – ऑक्सी राइबोज की बनी होती है। जबकि हानिकारक लार्वा की लट इस विषाणु को खाती है तो यह इसकी आहार नली में चला जाता है जहां उदर के मध्य भाग में क्षारीय माध्यम में इसके प्रोटीन के आवरण नष्ट हो जाते है एवं वायरस की संरचनाएं मुक्त हो जाती है जो विभिन्न अंगों की कोशिकाओं में पहुंचकर बहुत तेजी से अपनी संख्या में गुणन करती है। शुरू में लार्वा खाना कम कर देती है एवं 4-8 दिन में मर जाती है। मरी हुई लार्वा प्राय: उल्टी लटकी हुई पाई जाती है। इन लटों का रंग प्राय: हल्का पीला होता है। एवं फूली हुई होती है जिसको से जरा सा हिलाने पर हल्के पीले रंग का द्रव बाहर निकलता है। इस प्रकार एन.पी.व्ही. लार्वा को नष्ट करता है। एन.पी.व्ही. घोल का छिड़काव सायकाल के समय करना चाहिये। क्योंकि दिन में सूर्य के प्रकाश में परा बैगनी किरणों के द्वारा इसका तेजी से विखंडन हो जाता है। एक हेक्टर के लिए 250-500 एल ली पर्याप्त होती है।
अजाडिरेक्टिन:- कीट नियंत्रण के लिये नीम से बने कीटनाशक का प्रयोग करके पर्यावरण को प्रदूषण से बचाया जा सकता है। नीम के तेल में पाये जाने वाले अजाडिरेक्टिन तत्व का विभिन्न सांद्रता में फसलों पर प्रयोग अन्य सिन्थ्रेटिक पौध- सरंक्षण रसायनों के विकल्प के रूप में प्रयोग कर फसलों में लगने वाले कीटों से बचा जा सकता है। यह विष रहित होने के साथ-साथ सभी हानिकारक कीटों के प्रति प्रभावशाली नियंत्रक है।
ट्राईकोग्रामा:- ट्राईकोग्रामा परजीवी एक छोटा सा काले रंग का कीट होता है जिसको प्रारम्भिक अवस्था में कॉरसायरा सिफेलोनिका पर पाला जाता है जो मक्का फसल में तना छेदक आदि के कीटों के अण्डों में अपने अण्डे देकर अपना जीवनचक्र पूरा करता है। आकार में यह इतना छोटा होता है कि एक आलपिन के सिरे पर 8-10 वयस्क ट्राइकोग्रामा एक साथ बैठ सकते है। इस कीट का जीवन चक्रअण्डे की अवस्था से प्यूपा की अवस्था तक अपने परपोषी जीव के अंडे में पूरा होता है एवं वयस्क अवस्था में बाहर निकलकर पुन: अपना जीवन चक्र प्रारम्भ करने हेतु अण्डो की तलाश शुरू कर देता है इसलिये इसे अण्ड परजीवी कहते है।
गर्मी के मौसम में इसका जीवन चक्र 8-10 दिन में और सर्दी में 9-12 दिन में पूर्ण होता है। खेत में ट्राईकोकार्ड्स इसकी वयस्क निकलने से एक दिन पूर्व ही लगाने चाहिये वरना परभक्षियों द्वारा इनका भक्षण करने की संभावना रहती है। लगाने से पूर्व ट्राईकोकार्डस की स्ट्रिप को अलग कर देना चाहिये। ट्राइकोग्रामा एक अण्ड-परजीवी होने के कारण हानिकारक परपोषी जीव के अण्डों में अपना जीवन चक्र पूरा कनता है। अत: पर्यावरण को बिना नुकसान पहुंचा, हानिकारक कीटों के अण्डों को नष्ट कर देता है।
बी.टी. (बेसिलस थुरेन्जेन्सिस):- बेसिलस थुरेन्जेन्सिस का प्रयोग लेपीडोप्टेरा कीटों (लटों) कें नियंत्रण के लिये किया जाता है। यह एन.पी.व्ही. की भांति पर्यावरण को बिना नुकसान पहुंचा, हानिकारक लटों को नष्ट करता है। इसमें क्राई प्रोटीन पाया जाता है जो कि डेल्टा एन्डोटोक्सीन, एल्फा व बीटा एक्सोटोक्सिन उत्पन करते है। इसकी कई प्रजातियां पायी जाती है। बी. टी. के कई स्ट्रेन पाई जाती है जो निम्न प्रकार से है क्रस्टांकि, इजरायलेन्सिस, गेलेरिया, टेनेब्रोयोनिस आदि।