परिचय, उपयोगिता, वितरण एवं क्षेत्रफल | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
अलसी बहुमूल्य औद्योगिक तिलहन फसल है । अलसी के प्रत्येक भाग का प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से विभिन्न रूपों में उपयोग किया जा सकता है । अलसी के बीज से निकलने वाला तेल प्रायः खाने के रूप में उपयोग में नही लिया जाता है बल्कि दवाइयाँ बनाई जाती है। इसके तेल का पेंट्स, वार्निश व स्नेहक बनाने के साथ पैड इंक तथा प्रेस प्रिटिंग हेतु स्याही तैयार करने में उपयोग किया जाता है। म.प्र. के बुन्देलखंड क्षेत्र में इसका तेल खाने में, साबुन बनाने तथा दीपक जलाने में किया जाता है। इसका बीज फोड़ों फुन्सी में पुल्टिस बनाकर प्रयोग किया जाता है। अलसी के तने से उच्च गुणवत्ता वाला रेशा प्राप्त किया जाता है व रेशे से लिनेन तैयार किया जाता है। अलसी की खली दूध देने वाले जानवरों के लिये पशु आहार के रूप में उपयोग की जाती है तथा खली में विभिन्न पौध पौषक तत्वों की उचित मात्रा होने के कारण इसका उपयोग खाद के रूप में किया जाता है। अलसी के पौधे का काष्ठीय भाग तथा छोटे-छोटे रेशों का प्रयोग कागज बनाने हेतु किया जाता है।
हमारे देश में अलसी की खेती लगभग 2.96 लाख हैक्टर क्षेत्र में होती है जो विश्व के कुल क्षेत्रफल का 15 प्रतिशत है। अलसी क्षेत्रफल की दृष्टि से भारत का विश्व में द्वतीय स्थान है, उत्पादन में तीसरा तथा उपज प्रति हेक्टेयर में आठवाँ स्थान रखता है । मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार, राजस्थान व उड़ीसा अलसी के प्रमुख उत्पादक राज्य है। मध्य प्रदेश व उत्तर प्रदेश दोनों प्रदेशों में देश की अलसी के कुल क्षेत्रफल का लगभग 60 प्रतिशत भाग आच्छादित है। मध्यप्रदेश में अलसी का आच्छादित क्षेत्रफल 1.09 लाख हेक्टेयर, उत्पादन 57400 टन और उत्पादकता 523 किलोग्राम/हेक्टेयर है जबकि राष्ट्रीय औसत उपज 502 कि.ग्रा./हे. है। मध्यप्रदेश के सागर, दमोह, टीकमगढ़, बालाघाट एवं सिवनी प्रमुख अलसी उत्पादक जिले हैं। प्रदेश में अलसी के खेती विभिन्न परिस्थितियों में असिंचित (वर्षा आधारित) कम उपजाऊ भूमियों पर की जाती है। अलसी को शुद्ध फसल मिश्रित फसल, सह फसल, पैरा या उतेरा फसल के रूप में उगाया जाता है। देश में हुये अनुसंधान कार्य से यह सिद्ध करते हैं कि अलसी की खेती उचित प्रबन्धन के साथ की जाय तो उपज में लगभग 2 से 2.5 गुनी वृद्धि की संभव है । विभिन्न वर्षो में अलसी का क्षेत्रफल एवं उत्पादकता निम्नानुसार है। हमारे देश में अलसी की खेती लगभग 2.96 लाख हैक्टर क्षेत्र में होती है जो विश्व के कुल क्षेत्रफल का 15 प्रतिशत है। अलसी क्षेत्रफल की दृष्टि से भारत का विश्व में द्वतीय स्थान है, उत्पादन में तीसरा तथा उपज प्रति हेक्टेयर में आठवाँ स्थान रखता है । मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार, राजस्थान व उड़ीसा अलसी के प्रमुख उत्पादक राज्य है। मध्य प्रदेश व उत्तर प्रदेश दोनों प्रदेशों में देश की अलसी के कुल क्षेत्रफल का लगभग 60 प्रतिशत भाग आच्छादित है। मध्यप्रदेश में अलसी का आच्छादित क्षेत्रफल 1.09 लाख हेक्टेयर, उत्पादन 57400 टन और उत्पादकता 523 किलोग्राम/हेक्टेयर है जबकि राष्ट्रीय औसत उपज 502 कि.ग्रा./हे. है। मध्यप्रदेश के सागर, दमोह, टीकमगढ़, बालाघाट एवं सिवनी प्रमुख अलसी उत्पादक जिले हैं। प्रदेश में अलसी के खेती विभिन्न परिस्थितियों में असिंचित (वर्षा आधारित) कम उपजाऊ भूमियों पर की जाती है। अलसी को शुद्ध फसल मिश्रित फसल, सह फसल, पैरा या उतेरा फसल के रूप में उगाया जाता है। देश में हुये अनुसंधान कार्य से यह सिद्ध करते हैं कि अलसी की खेती उचित प्रबन्धन के साथ की जाय तो उपज में लगभग 2 से 2.5 गुनी वृद्धि की संभव है । विभिन्न वर्षो में अलसी का क्षेत्रफल एवं उत्पादकता निम्नानुसार है। |
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स्त्रोत -अखिल भारतीय समन्वित अलसी अनुंसधान परियोजना रिर्पोट, कानपुर (वर्ष 2013-14) | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
अलसी के कम उत्पादकता के कारण | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
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जलवायु | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
अलसी की फसल को ठंडे व शुष्क जलवायु की आवश्यकता पड़ती है। अतः अलसी भारत वर्ष में अधिकतर रबी मौसम में जहां वार्षिक वर्षा 45-50 सेंटीमीटर प्राप्त होती है वहां इसकी खेती सफलता पूर्वक की जा सकती है। अलसी के उचित अंकुरण हेतु 25-30 डिग्री से.ग्रे. तापमान तथा बीज बनते समय तापमान 15-20 डिग्री से.ग्रे. होना चाहिए। अलसी के वृद्धि काल में भारी वर्षा व बादल छाये रहना बहुत ही हानिकारक साबित होते हैं। परिपक्वन अवस्था पर उच्च तापमान, कम नमी तथा शुष्क वातावरण की आवश्यकता होती है । | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
भूमि का चुनाव | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
अलसी की फसल के लिये काली भारी एवं दोमट (मटियार) मिट्टियाँ उपयुक्त होती हैं। अधिक उपजाऊ मृदाओं की अपेक्षा मध्यम उपजाऊ मृदायें अच्छी समझी जाती हैं। भूमि में उचित जल निकास का प्रबंध होना चाहिए । आधुनिक संकल्पना के अनुसार उचित जल एवं उर्वरक व्यवस्था करने पर किसी भी प्रकार की मिट्टी में अलसी की खेती सफलता पूर्वक की जा सकती है। | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
खेत की तैयारी | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
अलसी का अच्छा अंकुरण प्राप्त करने के लिये खेत भुरभुरा एवं खरपतवार रहित होना चाहिये । अतः खेत को 2-3 बार हैरो चलाकर पाटा लगाना आवश्यक है जिससे नमी संरक्षित रह सके । अलसी का दाना छोटा एवं महीन होता है, अतः अच्छे अंकुरण हेतु खेत का भुरभुरा होना अतिआवश्यक है । | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
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विभिन्न फसल पद्वति हेतु संस्तुत प्रजातियाँ
असिंचित क्षेत्रों के लियेः- जे. एल.एस.-67,जे. एल.एस.-66,जे. एल.एस.-73,शीतल, रश्मि, शारदा, ईदिरा अलसी 32. |
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फसल पद्धति | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
एकल एवं मिश्रित खेती
अलसी की खेती वर्षा आधारित क्षेत्रों से खरीफ पड़त के बाद रबी में शुद्ध फसल के रूप में की जाती है। अनुसंधान परिणाम यह प्रदर्शित करते है कि सोयाबीन-अलसी व उर्द-अलसी आदि फसल चक्रों से पड़त अलसी की तुलना में अधिक लाभ लिया जा सकता है । इसी प्रकार एकल फसल के बजाय अलसी की चना $ अलसी (4ः2) सह फसल के रूप में ली जा सकती है। अलसी की सह फसली खेती मसूर व सरसों के साथ भी की जा सकती है। |
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उतेरा पद्धति | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
असली की उतेरा पद्धति धान लगाये जाने वाले क्षेत्रों में प्रचलित है। धान से खेती में नमी का सदुपयोग करने हेतु धान के खेत में अलसी बोई जाती है । इस पद्धति धान की खड़ी फसल में अलसी के बीज को छिटक दिया जाता है। फलस्वरूप धान की कटाई पूर्व ही अलसी का अंकुरण हो जाता है । संचित नमी से ही अलसी की फसल पककर तैयार की जाती है। अलसी इस विधि को पैरा/उतेरा पद्धति कहते है । | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
बुवाई का समय | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
असिंचित क्षेत्रो में अक्टूबर के प्रथम पखवाडे़ में तथा सिचिंत क्षेत्रो में नवम्बर के प्रथम पखवाडे़ में बुवाई करना चाहिये। उतेरा खेती के लिये धान कटने के 7 दिन पूर्व बुवाई की जानी चाहिये। जल्दी बोनी करने पर अलसी की फसल को फली मक्खी एवं पाउडरी मिल्डयू आदि से बचाया जा सकता है । | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
बीजदर एवं अंतरण | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
अलसी कीबुवाई 25-30 किग्रा प्रति हेक्टेयर की दर से करनी चाहिये। कतार से कतार के बीच की दूरी 30 सेमी तथा पौधे से पौधे की दूरी 5-7 सेमी रखनी चाहिये। बीज को भूमि में 2-3 सेमी की गहराई पर बोना चाहिये। | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
उतेरा पद्वति के लियेः | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
उक्त पद्धति हेतु 40-45 किग्रा बीज/हेक्टेयर की दर अलसी की बोनी हेतु उपयुक्त है। | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
बीजोपचार | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
बुवाई से पूर्व बीज को कार्बेन्डाजिम की 2.5 से 3 ग्राम मात्रा प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिये अथवा ट्राइकोडरमा विरीडी की 5 ग्राम मात्रा अथवा ट्राइकोडरमा हारजिएनम की 5 ग्राम एवं कार्बाक्सिन की 2 ग्राम मात्रा से प्रति किलोग्राम बीज को उपचारित कर बुवाई करनी चाहिये। | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
कार्बनिक खाद | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
अलसी की फसल के बेहतर उत्पादन हेतु अच्छी तरह से पकी हुई गोबर की खाद 4-5 टन/हे. अन्तिम जुताई के समय खेत में अच्छी तरह से मिला देना चाहिये । मिट्टी परीक्षण अनुसार उर्वरकोंका प्रयोग अधिक लाभकारी होता है। | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
उर्वरक प्रबंधन | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
असिंचित अवस्था में अलसी को असिंचित अवस्था में नाइट्रोसजन, फास्फोरस, पोटाश की क्रमशः 40ः20ः20 किग्रा./हे. देना चाहिये । बोने के पहले सीडड्रिल से 2-3 से.मी. की गहराई पर उर्वरकों की पूरी मात्रा देना चाहिये । | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
सिंचित अवस्था में | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
सिंचित अवस्था में अलसी फसल को नाइट्रोजन, फास्फोरस व पोटाश की क्रमशः 60-80ः40ः20 कि.ग्रा./हे. देना चाहिये । नाइट्रोजन की आधी मात्रा फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा बोने के पहले तथा बची हुई नाईट्रोजन की मात्रा प्रथम सिंचाई के तुरन्त बाद टाप ड्रेसिंग के रूप में देना चाहिये । अलसी एक तिलहन फसल है और तिलहन फसलों से अधिक उत्पादन लेने हेतु 20-25 कि.ग्रा./हे.सल्फर भी देना चाहिये । सल्फर की पूरी मात्रा बीज बोने के पहले देना चाहिये । इसके अतिरिक्त 20 किग्रा. जिंक सल्फेट/हेक्ट. की दर से बोनी के समय आधार रूप में देवे। | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
जैव उर्वरक | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
अलसी में भी एजोटोवेक्टर/एजोस्पाईरिलम और स्फुर घोलक जीवाणु आदि जैव उर्वरक उपयोग किये जा सकते हैं। बीज उपचार हेतु 10 ग्राम जैव उर्वरक प्रति किलो ग्राम बीज के हिसाब से अथवा मृदा उपचार हेतु 5 किलोग्राम/ हे. जैव उर्वरकों की मात्रा को 50 कि.ग्रा. भुरभुरे गोबर की खाद के साथ मिला कर अंतिम जुताई के पहले खेत में बराबर बिखेर देना चाहिये । | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
खरपतवार प्रबंधन | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
खरपतवार प्रबंधन के लिये वुवाई के 20 से 25 दिन पश्चात पहली निदाई-गुड़ाई एवं 40-45 दिन पश्चात दूसरी निदाई-गुड़ाई करनी चाहिये। अलसी की फसल में रासायनिक विधि से खरपतवार प्रबंधन हेतु पेन्डामेथिलिन 1 किलोग्राम सक्रिय तत्व को बुवाई के पश्चात एवं अंकुरण पूर्व 500-600 लीटर पानी में मिलाकर खेत में छिडकाव करें। | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
जल प्रबंधन | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
अलसी के अच्छे उत्पादन के लिये विभिन्न क्रांतिक अवस्थाओं पर 2 सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है।यदि दो सिंचाई उपलब्ध हो तो प्रथम सिंचाई बुवाई के एक माह बाद एवं द्वितीय सिंचाई फल आने से पहले करना चाहिये। सिंचाई के साथ-साथ प्रक्षेत्र में जल निकास का भी उचित प्रबंध होना चाहिये। प्रथम एवं द्वतीय सिचाई क्रमशः 30-35 व 60 से 65 दिन की फसल अवस्था पर करें। | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
पौध संरक्षण | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
अलसी के विभिन्न प्रकार के रोग जैसे गेरूआ, उकठा, चूर्णिल आसिता तथा आल्टरनेरिया अंगमारी एवं कीट यथा फली मक्खी, अलसी की इल्ली, अर्धकुण्डलक इल्ली चने की इल्ली द्वारा भारी क्षति पहुचाई जाती है। इनका प्रबंधन निम्नानुसार किया जा सकता है। प्रमुख रोग 1- गेरुआ (रस्ट) रोग यह रोग मेलेम्पसोरा लाइनाई नामक फफूंद से होता है। रोग का प्रकोप प्रारंभ होने पर चमकदार नारंगी रंग के स्फोट पत्तियों के दोनों ओर बनते हैं, धीरे धीरे यह पौधे के सभी भागों में फैल जाते हैँ । रोग नियंत्रण हेतु रोगरोधी किस्में जे.एल.एस. 9, जे.एल.एस 27, जे.एल.एस. 66, जे.एल.एस. 67, एवं जे.एल.एस. 73 को लगायें। रसायनिक दवा के रुप में टेबूकोनाजोल 2 प्रतिशत 1 ली. प्रति हेक्टे. की दर से या ;केप्टाऩ हेक्साकोनाजालद्ध का 500-600 ग्राम मात्रा को 500 लीटर पानी मे घोलकर छिड़काव करना चाहिए। 2- उकठा (विल्ट) यह अलसी का प्रमुख हांनिकारक मृदा जनित रोग है इस रोग का प्रकोप अंकुरण से लेकर परिपक्वता तक कभी भी हो सकता है। रोग ग्रस्त पौधों की पत्तियों के किनारे अन्दर की ओर मुड़कर मुरझा जाते हैं। इस रोग का प्रसार प्रक्षेत्र में पडे़ फसल अवशेषों द्वारा होता है। इसके रोगजनक मृदा में उपस्थित फसल अवशेषों तथा मृदा में उपस्थित रहते हैँ तथा अनुकूल वातावरण में पौधो पर संक्रमण करते हैं। उन्नत प्रजातियों को लगावें। 3- चूर्णिल आसिता (भभूतिया रोग) इस रोग के संक्रमण की दशा में पत्तियों पर सफेद चूर्ण सा जम जाता है। रोग की तीव्रता अधिक होने पर दाने सिकुड़ कर छोटे रह जाते हैँ । देर से बुवाई करने पर एवं शीतकालीन वर्षा होने तथा अधिक समय तक आर्द्रता बनी रहने की दशा में इस रोग का प्रकोप बढ़ जाता है। उन्नत जातियों को बायें। कवकनाशी के रुप मे थायोफिनाईल मिथाईल 70 प्रतिशत डब्ल्यू. पी. 300 ग्राम प्रति हेक्टे. की दर से छिड़काव करना चाहिए। 4- (आल्टरनेरिया) अंगमारी इस रोग से अलसी के पौधे का समस्त वायुवीय भाग प्रभावित होता है परंतु सर्वाधिक संक्रमण पुष्प एवं पत्तियों पर दिखाई देता है। फूलों की पंखुडियों के निचले हिस्सों में गहरे भूरे रंग के लम्बवत धब्बे दिखाई देते हैं। अनुकूल वातावरण में धब्बे बढ़कर फूल के अन्दर तक पहुँच जाते हैँ जिसके कारण फूल निकलने से पहले ही सूख जाते हैं। इस प्रकार रोगी फूलों में दाने नहीं बनते हैँ । उन्नत जातियों की बोनीे करें। ;केप्टाऩ हेक्साकोनाजालद्ध का 500-600 ग्राम मात्रा को 500 लीटर पानी मे घोलकर छिड़काव करना चाहिए। |
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समन्वित रोग प्रबंधन | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
1. प्रक्षेत्र की जुताई से पहले फसल अवशेषों को इकट्ठाकर जला देना चाहिये। 2. मिट्टी में रोग जनकों के निवेश को कम करने के लिये 2-3 वर्ष का फसल चक्र अपनाना चाहिये। 3. अक्टूबर के अंतिम सप्ताह से लेकर नवम्बर के मध्य तक बुवाई कर देना चाहिये। 4.बीजों को बुवाई से पहले कार्बेन्डाजिम या थायोंफिनिट-मिथाइल की 3 ग्राम मात्रा से प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिये। 5. फसलों पर रोग के लक्षण दिखाई देते ही आइप्रोडियोन की 0.2 प्रतिशत (2ग्राम/ली.पानी) अथवा मैन्कोजेब की 0.25 प्रतिशत (2.5 ग्राम/ली. पानी) अथवा कार्बेन्डाजिम 12:मेकोंजेब 63: की 2 ग्राम/ली. मात्रा का पर्णिय छिड़काव करना चाहिये। 6. चूर्णिल आसिता रोग के प्रबंधन के सल्फेक्स अथवा कार्बेन्डाजिम 2 ग्राम प्रति ली. पानी में घोल की के जलीय घोल का पर्णिय छिडकाव लाभप्रद होता है। 7. रोग के प्रति सहनशील अथवा प्रतिरोधी प्रजातियों का चयन कर उगाना चाहिये। |
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अलसी के प्रमुख कीट | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
1. फली मक्खी (बड फ्लाई) यह प्रौढ़ आकार में छोटी तथा नारंगी रंग की होती है। जिनके पंख पारदर्शी होते हैं। इसकी इल्ली ही फसलों को हांनि पहुँचाती है। इल्ली अण्डाशय को खाती है जिससे कैप्सूल एवं बीज नहीं बनते हैं। मादा कीट 1 से 10 तक अण्डे पंखुडि़यों के निचले हिस्से में रखती है। जिससे इल्ली निकल कर फली के अंदर जनन अंगो विशेषकर अण्डाशयों को खा जाती है। जिससे फली पुष्प के रूप में विकसित नहीं होती है तथा कैप्सूल एवं बीज का निर्माण नहीं होता है। यह अलसी को सर्वाधिक नुकसान पहुँचाने वाला कीट है जिसके कारण उपज में 60-85 प्रतिशत तक क्षति होती है। नियंत्रण के लियें ईमिडाक्लोप्रिड 17.8 एस.एल. 100 मिली./ हेक्ट. की दर से 500-600 ली. पानी में घोलकर छिड़काव करें।
2. अलसी की इल्ली प्रौढ़ कीट मध्यम आकार के गहरे भूरे रंग या धूसर रंग का होता है, जिसके अगले पंख गहरे धूसर रंग के पीले धब्बे युक्त होते हैँ । पिछले पंख सफेद, चमकीले, अर्धपारदर्शक तथा बाहरी सतह धूसर रंग की होती है। इल्ली लम्बी भूरे रंग की होती है। जो तने के उपरी भाग में पत्तियों से चिपककर पत्तियों के बाहरी भाग को खाती है। इस कीट से ग्रसित पौधों की बढ़वार रूक जाती है। 3. अर्ध कुण्डलक इल्ली इस कीट के प्रौढ़ शलभ के अगले पंख पर सुनहरे धब्बे होते हैं। इल्ली हरे रंग की होती है जो प्रारंभ में मुलायम पत्तियों तथा फलियों के विकास होने पर फलियों को खाकर नुकसान पहुँचाती है। 4. चने की इल्ली इस कीट का प्रौढ़ भूरे रंग का होता है जिनके अगले पंखों पर सेम के बीज के आकार के काले धब्बे होते हैँ । इल्लियों के रंग में विविधता पाई जाती है जैसे यह पीले, हरे, नारंगी, गुलाबी, भूरे या काले रंग की होती है। शरीर के पाश्र्व हिस्सों पर हल्की एवं गहरी धारिया होती है। छोटी इल्ली पौधों के हरे भाग को खुरचकर खाती है बड़ी इल्ली फूलों एवं फलियों को नुकसान पहुँचाती है। |
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समन्वित कीट प्रबंधन तकनीकी | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
1. ग्रीष्म कालीन गहरी जुताई से मृदा में स्थित फली मक्खी की सूंडी तीव्र धूप के सम्पर्क में आकर नष्ट हो जाती है। 2. कीटों हेतु संस्तुत सहनशील प्रजातियों का चुनाव बुवाई हेतु करना चाहिये। 3. अगेती बुवाई अर्थात अक्टूबर के प्रथम सप्ताह में बुवाई करने पर कीटों का संक्रमण कम होता है। 4. अलसी के साथ चना (2:4) अथवा सरसों (5:1) की अतंवर्तीय खेती करने से फली बेधक कीट का संक्रमण कम हो जाता है। 5. उर्वरक की संस्तुत मात्रा (60-80 किग्रा नत्रजन, 40 किग्रा स्फुर तथा 20 किग्रा) पोटाश का प्रति हेक्टेयर की दर से सिंचित अवस्था में प्रयोग करना चाहिये। 6. बांस की टी के आकार की 2.5 से 3 फीट ऊँची 50 खूंटियों को प्रति हेक्टेयर से लगाने से कीटों को उनके प्राकृतिक शत्रु चिडि़यों द्वारा नष्ट कर दिया जाता है। 7. न्यूक्लियर पाली हेड्रोसिस विषाणु की 250 एल.ई. का प्रति हेक्टेयर की दर से छिडकाव लैपिडोप्टेरा कुल के कीटों का प्रभावशाली प्रबंधन होता है। 8. प्रकाश प्रपंच का उपयोग कर कीड़ों को आकर्षित कर एकत्र कर नष्ट कर दें। 9. नर कीटों को आकर्षित करने तथा एकत्र करने हेतु फेरोमोन टेªप का प्रति हेक्टैयर की दर से 10 ट्रैप का प्रयोग लाभप्रद होता है। 10. जब फली मक्खी की संख्या आर्थिक क्षति स्तर (8-10 प्रतिशत कली संक्रमित) से उपर पहुँच जाय तो एसिफेट या प्रोफेनोफॉस अथवा क्विनालफॉस 2 मि.ली. मात्रा/ली. पानी के घोल का 15 दिन के अंतराल पर छिड़काव लाभप्रद होगा। 11. इसके अतिरिक्त अन्य रसायनों जैसे साइपरमेथ्रिन (5 प्रतिशत) $ क्लोरोपाइरीफॉस (50 प्रतिशत)-55 ई.सी. की 750 मिली. मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से अथवा साइपरमेथ्रिन (1 प्रतिशत) $ ट्राजोफॉस (35 प्रतिशत)-40 ई.सी. की एक लीटर मात्रा का 500-600 लीटर पानी में प्रति हेक्टेयर की दर से छिडकाव लाभप्रद होता है। |
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कटाई गहाई एवं भण्डारण | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
जब फसल की पत्तियाँ सूखने लगें, केप्सूल भूरे रंग के हो जायें और बीज चमकदार बन जाय तब फसल की कटाई करनी चाहिये। बीज में 70 प्रतिशत तक सापेक्ष आद्रता तथा 8 प्रतिशत नमी की मात्रा भंडारण के लिये सर्वोत्तम है। | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
सूखे तने से रेशा प्राप्त करने की विधि | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
1. फसल की कटाई भूमि स्तर से करें। 2. बीजों की मड़ाई करके अलग कर लें तत्पश्चात तने को जहाँ से शाखाओं फूटी हों, काटकर अलग करें फिर कटे तने को छोटे-छोटे बण्डल बनाकर रख लें। 3. अब सूखे कटे तने बण्डल को सड़ाने के लिये अलग रखें। 4. तनों को सड़ाने के लिये निम्न लिखित विधि अपनायें। अ. सूखे तने के बण्डलों को पानी से भरे टैंक में डालकर 2-3 दिन तक छोड़ दें। ब. सड़े तने के बण्डल को 8-10 बार टैंक के पानी से धोकर खुली हवा में सूखने दें। स. अब तना रेशा निकालने योग्य हो गया है। रेशा निम्न प्रकार से निकाला जा सकता है – ब. यांत्रिकी विधि (मशीन से रेशा निकालने की विधि) |
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आर्थिक अध्ययन एवं लागत व्यय की गणन | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
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लाभ एवं लाभ—लागत अनुपात | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
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