आने वाला बजट 2019 के चुनाव के पहले आखिरी पूर्ण बजट होगा। इसे ध्यान में रखें तो फोकस पूरी तरह किसान पर आ गया है। अपने बजट भाषण की शुरुआत में हर वित्त मंत्री किसानों का प्रशस्ति गान गाता है, प्राय: उन्हें देश की अर्थव्यवस्था की जीवन रेखा बताया जाता है और कई बार ‘किसान की अाज़ादी’ का संकल्प जताया जाता है पर भारतीय कृषि खोखले वादों की शिकार ही रही है। अन्यथा मुझे कोई कारण नहीं नज़र आता कि खेती का संकट इतने बरसों में क्यों बढ़ता गया?
एक फरवरी को आने वाला बजट वित्त मंत्री अरुण जेटली के समक्ष अपेक्षाओं से आगे जाकर कृषि को नया जीवन देने की मजबूत नींव रखने का मौका देता है। एक ऐसे देश में जहां 52 फीसदी आबादी सीधे या परोक्ष रूप से खेती से जुड़ी है, हम चाहे या न चाहे ‘सबका साथ सबका विकास’ का रास्ता खेती से ही गुजरता है। किसान खुश तो सब खुश की पुरानी कहावत अब भी हमारी अर्थव्यवस्था पर लागू होती है।
2014 में अपना पहला बजट पेश करते हुए वित्तमंत्री जेटली ने जिन पांच प्राथमिक क्षेत्रों पर ध्यान देने की जरूरत बताई थी उनमें खेती से होने वाली आमदनी सबसे ऊपर थी। लेकिन, लगातार दो साल 2014 तथा 2015 में सूखा पड़ने से 2016 और 2017 के अगले दो वर्षों में लगभग सभी फसलों में खेती से आय एकदम नीचे आ गई, जिससे कई स्थानों पर किसान अपनी उपज सड़कों पर फेंकने पर मजबूर हुए। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के मुताबिक इससे किसानों में रोष अपूर्व स्तर पर पहुंच गया। खेती से जुड़े विरोध प्रदर्शन 2014 में 628 थे। जो अत्यधिक बढ़कर 2016 में 4,837 हो गए यानी 670 फीसदी की बढ़ोतरी, जो चिंता की बात है।
इसलिए फोकस तत्काल किसानों के हाथों में अधिक आमदनी देने पर लाना होगा। लेकिन खेती का ग्रामीण संकट दूर करने के लिए वित्त मंत्री जिन साहसी कदमों की घोषणा करने वाले हैं, अखबारों में उससे संबंधित रिपोर्टें पढ़कर मुझमें कोई उम्मीद नहीं जगती। इससे यही पता चलता है कि सत्ता के गलियारों के नौकरशाह खेती की दिक्कतों को समझ नहीं पाए हैं। पिछले दरवाजे से कॉर्पोरेट कृषि लाने से मौजूद संकट और बढ़ेगा ही।
इसकी बजाय ये कदम उठाएं तो बेहतर होगा :
– चार साल से किसानों पर जो मार पड़ रही है उसके बाद अब वक्त आ गया है कि उन्हें तेलंगाना में हुई घोषणा की तर्ज पर हर साल 8 हजार रुपए प्रति एकड़ का पैकेज देना चाहिए। हर सीज़न में एक बार यह पैसा सीधे किसानों के बैंक खातों में डाला जाए। सारे किसान इसके हकदार हों यानी यह इस बात पर निर्भर न हो कि उनके पास जमीन कितनी है। केंद्र को इसके लिए बजट में प्रावधान करना होगा। जैसे कर्नाटक में डेयरी के किसानों को भी प्रति लीटर दूध पर 5 रुपए का इंसेन्टिव देने की सख्त जरूरत है।
– निवेश की प्राथमिकता भी तत्काल और अधिक एपीएमसी संचालित मंडियों के निर्माण पर लानी होगी। पांच किलोमीटर के दायरे के हिसाब से जहां 42 हजार मंडियों की जरूरत है, वहीं वर्तमान में सिर्फ 7,600 मंडियां हैं। शुरुआत के लिए इस बजट में 20,000 मंडियां बनाने के लिए आवंटन आसानी से किया जा सकता है।
– ई-नाम (नेशनल एग्रीकल्चरल मार्केट) को विस्तार देना तब तक निरर्थक है जब तक कि ट्रेडिंग न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर न हो। रोज की ट्रेडिंग गतिविधियों के लिए इस्तेमाल की जाने वाली आदर्श कीमत वास्तव में हताशा में की जाने वाली बिक्री की कीमत है। जब तक किसान को सही कीमत नहीं मिलती, ई-नाम केवल व्यापारियों के लिए कमोडिटी ट्रेडिंग में मददगार साबित होगा।
– फसलों का एमएसपी तय करने वाले कमीशन फॉर कॉस्ट्स एंड प्राइसेस (सीएसीपी) को नया नाम देकर कमीशन फॉर फार्मर्स इनकम एंड वेलफेयर कर देना चाहिए और उसे दायित्व देना चाहिए कि वह सारे किसानों के लिए न्यूनतम 18 हजार रुपए प्रतिमाह की आय सुनिश्चित करे।
– कॉर्पोरेट लोन राइट-ऑफ और किसान ऋण माफी के बीच के विरोधाभास को खत्म किया जाना चाहिए। उद्योग व किसान दोनों बैंकों से कर्ज लेते हैं लेकिन, कॉर्पोरेट राइट-ऑफ में उन राज्यों पर बोझ नहीं पड़ता, जहां वे उद्योग होते हैं। अब तक विभिन्न राज्यों द्वारा की गई किसान कर्ज माफी की घोषणा को मिलाए तो इस साल यह मोटेतौर पर 75,000 करोड़ रुपए होता है। राज्यों ने घोषणा की तो खर्च भी उन्हें ही वहन करना होगा। लेकिन 2016-17 में बैंकों ने चुपचाप कॉर्पोरेट क्षेत्र का 77,123 करोड़ रुपए का फंसा कर्ज राइट-ऑफ कर दिया। किसी राज्य को यह बोझ नहीं उठाना पड़ा।
देविंदर शर्मा
कृषि विशेषज्ञ एवं पर्यावरणविद