महाराष्ट्र में हुई विशाल किसान रैली ने फडणवीस सरकार के पसीने छुड़ा दिए और उन्होंने किसी तरह सब मांगे मानकर खुद को बड़े राजनीतिक संकट से बचा लिया। बेरोज़गार युवाओं, नाखुश कर्मचारियों, सैनिकों और त्रस्त मध्यवर्गीय जनमानस के साथ अब किसानों ने भी मुखर होकर सरकारों का विरोध करना शुरू कर दिया है। आखिर इस मामले का हल क्या है? आखिर कहां तक सत्ता बचाने के लिए समझौते की राजनीति जारी रहेगी? क्या किसानों की समस्याओं का कोई स्थायी समाधान हमारे तन्त्र के पास है ही नहीं?
किसानों की आय दोगुनी करने का वादा सिर्फ कर्ज़ माफी तथा जुमलों तक ही सिमटकर रह गया है। भले ही योजनाएं प्रधानमंत्री कार्यालय से वर्तमान परिदृश्य बदलने के निश्चय के साथ जारी की जाती हो लेकिन, एक अरसा बीत जाने के बाद भी धरातल पर उनका असर नगण्य होता है। मौजूदा राजनीतिक माहौल में किसान के भीतर असुरक्षा पैदा कर रहा है, जहां उनकी कमाई से खड़ी की गई अर्थव्यवस्था चंद कारोबारियों द्वारा लूटी जा रही है, जबकि उन्हें उनका वाजिब हक देने तक से वंचित रखा जा रहा है। सरकार बेशक विभिन्न योजनाओं के ज़रिये किसानों का खास ध्यान रखती है फिर चाहे वह कृषि सिंचाई योजना हो, फसल बीमा योजना हो या सॉइल हेल्थ कार्ड के ज़रिये की गई सहायता हो। किंतु ये सारी योजनाएं अंधेरे में छोड़े गए तीर की तरह हैं जिसका निशाना कहां लगता है कोई नहीं जानता। सरकार को चाहिए कि इन योजनाओं को बेहतर ढंग से अमल में लाने के लिए ग्रीवांस कमेटी तथा फीडबैक तन्त्र की भी व्यवस्था की जाए जो सरकारी योजनाओं के लाभ वंचित लोगों तक पहुंचा सकें। स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट भी कई वर्षों से सरकार के गले की हड्डी बनी हुई है। इसे हर वह पार्टी लागू करना चाहती है, जो विपक्ष में होती है। ऐसा नहीं है कि सरकार किसानों की तकलीफे नहीं जानती है किंतु लगता है जैसे वह समस्या को बनाए रखना चाहती है ताकि अगले चुनाव में इसे फिर मुद्दा बनाकर वही वादे कर पाए जो इस बार करके सत्ता में काबिज़ हुए हैं।
ममता कुमारी
महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय, हरियाणा