चना भारतीय उपमहाद्वीप की प्रमुख दलहनी फसल है जो अर्ध्द शुष्ख उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में उगाई जाती है। चने की फसल शाकाहारी लोगो के लिए प्रोटीन का उत्तम श्रोत है भारत में चने की खेती 7.54 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र में की जाती है, जिससे 7.62 कु./हे. के औसत मान से 5.75 मिलियन टन उपज प्राप्त होती है।
भारत में चने की खेती मुख्य रूप से बिहार, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र तथा राजस्थान में की जाती है। भारत में सबसे अधिक चने का क्षेत्रफल एवं उत्पादन वाला राज्य मध्यप्रदेश है। छत्तीसगढ़ राज्य के मैदानी जिलो में चने की खेती असिंचित अवस्था में की जाती है।
चने की खेती के लिए जलवायु
चने की खेती के लिए मध्यम वर्षा और सर्दी वाले क्षेत्र सर्वाधिक उपयुक्त होते है। यह शुष्क एवं ठण्डे जलवायु की फसल है, जिसे रबी मौसम में उगाया जाता हे। फसल में फूल आने के बाद वर्षा होना हानिकारक होता है, क्योंकि वर्षा के कारण फूल के परागकण एक दूसरे से चिपक जाते, परिणामस्वरूप बीज बनाने में समस्या उत्पन्न हो जाती है। इसकी खेती के लिए 24-300 सेल्सियस तापमान उपयुक्त माना जाता है। दाना बनते समय लगभग 300 सेल्सियस का तापक्रम अच्छा रहता है। तापक्रम के उतार चढ़ाव का सीधा प्रभाव उत्पादन पर दिखाई देता है।
खेत का चुनाव एवं तैयारी
चने की खेती हल्की से भारी भूमियों में की जाती है। किन्तु अधिक जल धारण एवं उचित जल निकास वाली भूमियॉ सर्वोत्तम रहती हैं। इस फसल की खेती दोमट से मटियार भूमियों में भी सफलता पूर्वक किया जा सकता है। जबकि मृदा का पी.एच. मान 6.0 से 7.5 उपयुक्त माना जाता है। अंसिचित अवस्था में मानसून शुरू होने से पूर्व एक गहरी जुताई करने से रबी के लिए भी नमी संरक्षण होता है। मिट्टी जनिक व्याधिकारकों की रोकथाम एक लिए गर्मियों में मिट्टी पलटने वाले हल से एक गहरी जुताई कर देनी चाहिए। इससे मिट्टी का वातन अच्छी तरह होता है, साथ ही जड़ विकास भी पूर्णरूप सी होता है। बुवाई से पहले एक बार डिस्क हैरो और उसके बाद 2 से 3 बार कल्टीवेटर से जुताई करके पाटा लगाकर खेत समतल कर लेना चाहिए। दीमक प्रभावित खेतों में क्लोरपायरीफास 20 EC की 2.5 लीटर को 20 किलोग्राम रेत में मिला कर प्रातो हेक्टेयर की दर बिखेर देना चाहिए, इससे कटुआ कीट पर भी प्रबंधन होता है।
बिहार के लिए अनुशंसित चने की किस्में
- गुजरात ग्राम – 4 (GCP- 105) : इस प्रभेद का दाना गहरे भूरे रंग का होता है। फसल लगभग १३० से १३५ दिनों में पाक कर तैयार हो जाती है। जिसकी उपज क्षमता लगभग 18 से 20 कुं./.हे है।
- KPG – 59 (उदय): यह देर बुवाई की जाने वाली बड़े दानों की प्रबेद है। जो सूखा जड़ा सडन तथा उकठा व्याधि का अलावा फली छेदक कीट के प्रति भी सहनशीलता प्रदर्शित करती है। यह प्रभेद १३५ से १४० दिनो मे पक कर तैयार हो जाती है तथा लगभग 20 कुं./हे. उपज देती है।
- पूसा – 372 (BG – 372) : यह हल्के भूरे रंग के छोटे दानों वाली प्रभेद है, जो उकठा, सूखा जड़ सडन एवं झुलसा व्याधि के प्रति सहनशील है। यह किस्म १३५ से १५० दिन में पक जाती है, जिससे सामान्य तौर पर २१ से २३ कुन्तल प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त होती है।
- KWR – 108 : इस प्रभेद का दाना छोटा एवं हल्के, भूरे रंग का होता है। जो उकथा रोग के प्रति सहनशील है। यह किस्म १३० से १३५ दिनों में पक कर तैयार हो जाती है। इसकी पैदावार लगभग २० से २३ कुं./हे. होती है।
काबूली चने की किस्में
इसकी खेती सिंचित दशा में ही की जा सकती है। इस चने की खेती में मौसम के उतार चढ़ाव का कुप्रभाव अधिक होता है, फलस्वरूप बिहार राज्य के भौगोलिक परिस्थितियों में इसकी खेती को यथोचित प्रोत्साहन नहीं मिल पा रहा है। बिहार राज्य के लिए विकसित प्रभेदों में से कुछ इस प्रकार है:
- हरयाना काबुली चना – 2 (HK – ९४-१३५ ) : यह प्रभेद उकठा, सूखा जड़ सडन एवं कालर सडन व्याधि के प्रति सहनशील है। जो १३५ से १४० दिन में पककर तैयार हो जाती है एवं औसतन १२ से 16 कुं./हे. उपज देती है।
- BG – १००३ (पूसा काबुली) : यह सफेद एवं बड़े दानो वाला प्रभेद है जो उकठा व्याधि के प्रति सहनशील है। यह १४० से १५० दिनों में पकने वाली किस्म है। इसकी उपज क्षमता 1७ से 1९ कुं./हे. है।
चने की बोवाई का समय
अक्टूबर के अंतिम सप्ताह से नवम्बर के दूसरे सप्ताह तक फसल की बुवाई की जा सकती है। जिन क्षेत्रों में वानस्पतिक वृद्धि ज्यादा होती है, उन क्षेत्रों एक से दो सप्ताह की देरी की जा सकती है। सिंचित क्षेत्रो में बुवाई से बुवाई से पहले खेतों की सिचाई कर लेनी चाहिए, इससे फसल का जमाव एक सामान होता है।
चने की फसल में बीज दर
समय पर बुवाई के लिए 75-80 कि.ग्रा./हे. (देशी) एवं 80-90 कि.ग्रा./हे. (काबुली), जबकि देर से बुवाई करने की स्थिति में 80-90 कि.ग्रा./हे. (देशी) तथा 100-120 कि.ग्रा./हे. (काबुली) बीज का उपयोग करना सुनिश्चित करें।
चना बुवाई की विधि
बीजों को केवल पंक्तियों में ही बोना चाहिए। चने की फसल के लिए पंक्ति से पंक्ति की दूरी 30-45 से.मी. जबकि पौध से पौध की दूरी 10-15 से.मी. (बीज की विविधता के आधार पर) रखना चाहिए। बीज को 5-6 से.मी. से ज्यादा गहरा नहीं बोना चाहिए अन्यथा बीज के जमाव पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
चने की खेती में फसल प्रणालियाँ
चने की खेती विभिन्न प्रकार की फसल प्रणालियों जैसे: अंत:फसल, मिश्रित फसल, रिले फसल या एकल फसल के रूप में की जा सकती है। बिहार एवं उत्तर प्रदेश समेत उत्तरी भारत के कुछ भागों में चने को सरसों के साथ अंत:फसल (6:2) के रूप में उगाया जाता है। अलसी या धनिया को चने के हर दसवें पंक्ति के बाद लगाना बेहतर होता है। अलसी की अंत:फसल उकठा और धूसर फफूद की व्यापकता को कम करने में सहायक होता है, जबकि धनियाँ के अंत:फसल से फली भेदक कीट की व्यापकता कम होती है साथ ही इस कीट के प्राकृतिक शत्रु फसल पर आकर्षित होते है।
बीज उपचार
बीज एवं मिट्टी जनित संक्रमण से फसल को बचाने के लिए बीज उपचार आवश्यक हो जाता है। फसल को फंफूद जनित व्याधियों से बचाव के लिए ट्राईकोडर्मा @ 5.0 ग्रा./कि.ग्रा. या कार्बेन्डाजिम @ 2.0 ग्रा./कि.ग्रा. या डायथेन एम– 45 @ 2.0 ग्रा./कि.ग्रा. बीज की दर से उपचारित करना सुनिश्चित करें। जिन खेतों में चना पहली बार उगाया जा रहा हो, वहां फंफूदनाशी एवं कीटनाशी के उपचार के बाद राइजोवियम या मेजोराइजोबियम के साथ–साथ फास्फेट को घुलनशील बनाने वाले बैक्टीरिया @ 5.0 ग्रा./कि.ग्रा. बीज की दर से उपचारित करना लाभदायक रहता है। ध्यान इस बात के रखना चाहिए की राइजोवियम से उपचार के तीन घंटे के अन्दर बीजो की बुवाई कर देनी चाहिए।
चने में खाद एवं उर्वरक
दूसरे फसलों की तरह चने में भी संतुलित मात्र में कार्बनिक एवं रसायनिक उर्वरकों का उपयोग करना अत्यन्त लाभकारी होता है। बेहतर उपज प्राप्त करने के लिए गोबर की खाद या कम्पोस्ट की 5 टन मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से खेत की तैयारी के समय देना चाहिए, जबकि 20 किलों नत्रजन, 50 किलो स्फुर, 20 किलो पोटैशियम व 20 किलो सल्फर प्रति हेक्टेयर का उपयोग करना चाहिए। उर्वरक की पूरी मात्रा बुवाई के समय कूंड में बीज के नीचे 5-7 से.मी. की गहराई पर देना लाभप्रद रहता है। मिश्रित फसल के साथ चना की फसल को अलग से खाद देने की आवष्यकता नहीं रहती है।
चना फसल में जैव उर्वरक
नवीनतम शोध से यह बात सामने आयी है कि पाइरीफोरमास्पोरा इंडिका (Piriformaspora indica), वी.ए. माईकोराइजा (VA Mycorrhiza) की तरह काम करता है। इसके अन्य उर्वरकों के साथ सम्मिलित उपयोग से उत्पादन में लगभग 25-27 प्रतिशत की वृद्धि पायी गयी है। पौधों के विकास को बढावा देने वाले राईजोबैक्टीरिया वो सूक्ष्मजीव है जो राईजोस्फेयर में रह कर पोषक तत्वों के अवशोषण क्षमता को बढ़ाते है और साथ ही साथ एन्टीबायोटिक्स, एन्टीफंगल एवं वृद्धि हार्मोन इत्यादि का उत्पादन कर पौधों के विकास प्रक्रिया को बढ़ाते है।
चने की फसल मे सिंचाई
आमतौर पर चने की खेती असिंचित अवस्था में की जाती है। चने की फसल के लिए कम जल की आवश्यकता होती है। चने में जल उपलब्धता के आधार पहली सिंचाई फूल आने के पूर्व अर्थात बोने के 45 दिन बाद एवं दूसरी सिंचाई दाना भरने की अवस्था पर अर्थात बोने के 75 दिन बाद करना चाहिए।
चने की फसल में नाशीजीव प्रंबंधन
बुवाई की पूर्व
फसल की बुवाई से पहले प्रमुख कीटों (जैसे: फली भेदक, कटुवा, दीमक इत्यादि) एवं व्याधियों (जैसे: उकठा, मूल विगलन, एस्कोकाइटा ब्लाइट, बोट्रायटिस ग्रे मोल्ड, कलर रॉट, ड्राई रूट रॉट इत्यादि) का रोकथाम इस प्रकार कर सकते है: 1. गर्मी के मौसम में खेतों की गहरी जुताई करें, 2. गोबर की सडी हुयी खाद या नीम की खली का व्यवहार करें, 3. कम से कम दिनों में सम्पूर्ण गांव या क्षेत्र की बुवाई सुनिश्चित करें, 4. मुख्य फसल के चारो तरफ गेंदा के फूल की रोपाई करें, 5. अलसी, धनियाँ, सरसों, गेहूँ या सूर्यमुखी को अंत:फसल के रूप में उगायें, 6. फसल की बुवाई मध्य अक्टूबर माह तक सुनिश्चित करें, 7. सहनशील या रोग प्रतिरोधक प्रभेदो का चुनाव करें।
अंकुरण की अवश्था
फसल की इस अवश्था में मूल विगलन और उकठा रोग का प्रकोप अधिक होता है। इस रोग के संक्रमण से पौधे पहले पीले पड़ जाते, फिर सूख कर मर जाते है। बीजोपचार से फसल काफी हद तक संक्रमित होने से बची रहती है। इसके बावजूद भी अगर कुछ पौधे मुरझाएं तो उन्हें जड़ से उखड कर नष्ट कर देना चाहिए ताकि सिचाई जल के माध्यम से इनके रोगकारकों का विस्तार न हो सके। कुछ खेतो में कटुवा कीट का भी प्रकोप फसल की इस अवस्था में एक आम समस्या रहती है। इस कीट के गिडार पौधों के अंकुरण के पश्चात मिट्टी की सतह से काट कर गिरा देते है। इस कीट के रोकथाम के लिए कलोरपाइरीफास 20 ई.सी. @ 8.0 मि.ली./15 मि.ली. पानी में घोलकर, एक किलोग्राम बीज के साथ मिलकर बुवाई करना चाहिए।
वानस्पतिक वृद्धि की अवस्था
फसल की इस अवस्था में उगने वाले प्रमुख खरपतवार इसप्रकार है: बथुआ, गुलाबी फूल, जंगली गाजर, प्याजी, मोथा, दूब, अकरी, जंगली गोभी, बनतिपतिया घास, बननालिया, कृष्णनील या बिल्ली बूटी, जंगली सरसों, जंगली शलजम, जंगली मूली, हंस घास, चौलाई, चिकोरी, तिपतिया, बदिनोनी या कुरसा, मकोई, चिर्पोटी या रसभरी, बन इत्यादि। फसल में उगने वाले खरपतवारों का रोकथाम प्रारंभिक अवस्था में ही निराई-गुडाई करके कर लेना ज्यादा अच्छा होता है। आवश्यकता पड़ने पर पेंडीमेथलिन 1.0 लीटर सक्रीय तत्व प्रति हेक्टेयर की दर बुवाई के 2-3 दिनों के अन्दर छिडकाव करना चाहिए। इसके अतिरिक्त खरपतवारों की संख्या के आधार पर बुवाई के 25-30 एवं 50-60 दिनों बाद नराई-गुडाई करके खेत को साफ-सुथरा कर लेना चाहिए। बुवाई के 30 दिनों बाद पौधों के उपरी भाग को तोड़ देते है, जिससे नाशीजीवों का आगमन कम होता है साथ ही साथ अगल-बगल की शाखाएं भी निकलना प्रारंभ हो जाती है। फसल की निगरानी निरंतर करते रहे कोई भी असामान्यता दिखने पर कृषि विज्ञान केन्द्र या जिले के कृषि विभाग या किसान सूचना केन्द्र से संपर्क करके उचित सलाह लें एवं उसका अनुपालान सुनिश्चित करें।
चने की फसल में पुष्पन एवं फली आने की अवस्था
चने की फसल को फली भेदक कीट के साथ अन्य कीटो से बचाव के लिए खेतों में टी (T) आकर के 20 खूंटों को प्रति हेक्टेयर की दर से लगाना चाहिए, जो इस कीटों के शिकारी पंक्षियों को बैठने के लिए आकर्षित करती हैं। पर्यावरण के लिए सुरक्षित कीटनाशकों जैसे: एच.ए.एन.पी.वी. (HaNPV) 250 LE (POB 5X1011/ml) या बेसिलस थुरीनजेनसिस (Bacillus thuringiensis var.kurstaki) @ 1.0-1.5 कि.ग्रा./हे. या नीम के बीज कर्नेल का सत (NSKE) 5% या नीम का तेल 0.03% या वीवेरिया बेसियाना (Beauveria bassiana) @ 1.0 कि.ग्रा./हे. की दर उपयोग करें, जिससे हानिकारक कीटों प्राकृतिक शत्रु सुरक्षित एवं स्वश्थ रहें। उपरोक्त उपाय के बाद भी यदि कीटो की संख्या आर्थिक क्षति स्तर तक पहुँचने की संभावना हो तो इमामेक्टीन बेंजोएट 5 SG @ 0.2 ग्रा./ली. पानी या राइनेक्सीपीर 50 EC @ 0.15 मि.ली./ली. पानी या डाइफ्लूओबेन्जूराँन 25 WP @ 2.0 ग्रा./ली. पानी या क्लोरेंट्रानिलीप्रोले 18.5 SC @ 0.15 मि.ली./ली. पानी की दर से घोल बनाकर छिडकाव करना चाहिए।
चने की उपज एवं भण्डारण
चने की शुध्द फसल को प्रति हेक्टेयर लगभग 20-25 कुन्तल दाना एवं इतना ही भूसा प्राप्त होता है। काबूली चने की पैदावार देशी चने से तुलना में थोडा सा कम देती है। धूप में सूखे बीज को भण्डारण से पूर्व कुछ समय के लिए छावं में रखना चाहिए तथा बीज को अधिक समय के लिए खुले में नहीं छोड़ना चाहिए। नए बीज को भण्डारण में पहले से उपस्थित दाल भृंग (घुन) लगे हुए बीज के साथ नहीं करना चाहिए। भण्डारण पात्र या भण्डारण गृह को पहले अच्छी तरह साफ कर लेना चाहिए एवं दीवारों पर चूने से पुताई कर देना चाहिए। भण्डारण गृह एवं भण्डारण पात्र का ध्रुमण नीम की पत्तियों के धुयें से करना चाहिए साथ ही भण्डारण पात्र की तली में तथा ऊपर नीम की सूखी पत्तियां डाल देनी चाहिए। खाद्य तेलों जैसे: सरसों, मूगफली, नारियल, सूर्यमूखी, तिल तथा सोयाबिन या कुछ अन्य सक्रिय पदार्थों जैसे: शरीफा चूर्ण या नीम के बीज का चूर्ण या लहसून का चूर्ण @ 8-10 ग्रा./कि.ग्रा. बीज की दर से मिलाने से घुन के प्रकोप से बचा जा सकता है।